जिसके हक़ में, मैं सदा, दिल से दुआ करता रहा |
वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा ||
दोस्त था कहने को मेरा, दोस्ती न कर सका |
दोस्ती के नाम पर ही वो, दगा करता रहा ||
हमकदम था चल रहा, पर हमनफस न बन सका |
मैं भला करता रहा, और वो बुरा करता रहा ||
जिसकी खुशियों के लिए, मैं मन्नतें माँगा किया |
वो मेरे दिल को हमेशा, ही धुआँ करता रहा ||
जब भी उससे नेक-ओ-बद का, तज़करा मैंने किया |
वो ‘शशि की बात अक्सर, अनसुना करता रहा ||
Comment
वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा ||...bahut hi khubsurat
नादिर भाई, इस ग़ज़ल में काफ़िया ’आ’ और रदीफ़ ’करता रहा’ बन रहा है. इस हिसाब से किसी शब्द का आखिरी अक्षर काफ़िया के रूप में ’आँ’ बनना गलत ही होगा.
जिसके हक़ में, मैं सदा, दिल से दुआ करता रहा
वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा
बहुत उम्दा मतला है शशी मेहरा जी
काफिया आपने आ की मात्रा ली है पर यहाँ धुआँ kafiya आं पर है , क्या यह लिया जा सकता ।है मेरी जानकारी थोड़ी कम है, कृपया मार्गदर्शन करें।
बधाई. .
बेहतरीन लाजवाब क्या बात है दाद क़ुबूल कीजिये साहिब .............वाह वा
जिसकी खुशियों के लिए, मैं मन्नतें माँगा किया |
वो मेरे दिल को हमेशा, ही धुआँ करता रहा ||
बहुत सुन्दर बात कही आपने। इस बेहतरीन रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।
दोस्त जिसको शशी कहे, काहे का वह यार
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