कलियुग मंथन
कलिकाल अकाल बढ़ा जग मा। अस मात विक्राल हलाहल सा।।
जन जीव अजीव समीर दुःखी । जगती तल अम्बर ताल बसी।।
सब देव अदेव गंधर्ब डरे । ब्रहमा - विशनू - महदेव कहे ।।
अब तो बस एक उपाय करें। गुरू नाम जपें सब राम रटे ।।
जग मा रस गंध सुगन्ध बहे । भजनादि संकीर्तन गूॅज रहे ।।
मन -मान समान धरे उर मा। सतसंग उमंग अनन्य रस मा।।
कह गीत सुनीति कही सुनहीं। पर मान बढ़ाहि बुझाइ सही ।।
इतना कहिके प्रभु जोरि हॅसें । कलि काल सुमीत मिले जिनसे।।
चित शान्ति विचार उठा नभ में। चहुॅ ओर रमा रम राम रमें ।।
कलि काल अकाल अकारथ हो। सतनाम सहाय भली विधि हो।।
सत लोक सुलोक फिरै जगमा। धरि राम सुनाम सदा हिय मा।।
सुर आसुर आस बॅधे मन मा ।। हरि नाम जपा कहि राम रमा ।।
चहुॅ ओर सुभीड़ आश्रम महकें। घर मा बगिया -बगिया चहकें ।।
अब सागर पार यही चरचा । हरि नाम कथा हर-हर वरषा ।।
मन आतम ज्ञान मधू बहता। कहुॅ लोक न लाज मिले सुकंता।।
बस ताहि भरोस अकाल मुये। कलि काल अकाल मराल हुये।।
मन मान रहा हिय आतम सा। कलि योग मिटा सत योग बसा।
आतम-आतम को समुझाइ मना। कण-कारण-कोैन-कहाॅ बना।।
तुम ही आतम कारण तुम में । हम आंश-भिन्नांश वही सब में।।
वह तेज प्रचण्ड हवा पहिरो । दमके परकाश चका चक सो ।।
अखिलेश अखण्ड अनाम प्रभू। लखि नाम प्रभाव जपादि विभू ।।
तु-तु माम महा कहना बचना। पर प्राण सराहि भले मिटना ।।
यह ज्ञान न केवल ज्ञानम है। बस ज्ञानम आश्रय सत्यम है।।
सत्यम/’मौलिक एवं अप्रकाशित रचना‘
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