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जग मान जरा भव कालहि! 
’जग’ सागर कै बुल्ला ज्यों, तनिक छुवे मिट जाता है!
अहम ईर्षा लोभ क्षोभ जो, फॅसत निकल नहि पाता है!!

काम-’मान’ घास-पूस सो, यह चिनगी पाय दहकाता है!
मन नहि माने ’जरा’ सुनाये, तब बुध्दि योग उलझाता है!!

गृहस्थ ’भव’ स्वः विदेह जानो, राम नाम गुण गाता है!
केवल इस साधना भक्ति में, सद्गुरू ही पता बताता है!!

मित्र कुटुम्ब ’कालहि’ समान, छिन-छिन भ्रमहि कपट कहिहै!
सत्यम ज्ञान विराग लुटावहिं, जगमा न जरा भव का लहिहै!
सत्यम/मौलिकएवं अप्रकाषित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 8:08pm

आप द्वारा पद लिखने की कोशिश के लिए शुभकामनाएँ. 

शब्द-संयोजन को बिसराइये मत. यह मात्रिकता को साधने में मदद करता है जिसकी बिना पर कोई पद गेय होता है.

कृपया ध्यान दे...

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