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शाम को नजरें मिली यूँ, क्या कहें
आस की उपजी कली यूँ, क्या कहें

बात आँखों से चली यूँ, क्या कहें
खिल उठी मन की गली यूँ, क्या कहें

रूह से गोरी-सलोनी सी लगी
देह से वो साँवली यूँ, क्या कहें

धूप उस पर जुल्म करना छोड़ दे
जो है मक्खन की डली यूँ, क्या कहें

मिल भी जाते गर कदम तकदीर में
पर हमारी कुण्डली यूँ, क्या कहें

वो रियासत की हैं शहजादी 'सलिल'
और तुम दैनिक कुली यूँ, क्या कहें

-- आशीष 'सलिल'/हैदराबाद (14/3/13)

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Comment by Dr.Prachi Singh on March 15, 2013 at 10:28am

मासूम से भावों पर लिखी गयी बहुत सुन्दर गज़ल 

बहुत बहुत बधाई आशीष जी 

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on March 15, 2013 at 8:23am

हाय हाय मार डाला ...क्या नाज़ुक ग़ज़ल कह डाली सलिल भाई.... ढेरों दाद हाजिर है....बेहतरीन और उम्दा ...एक एक शेर लाजवाब... पूरी मुकम्मल ग़ज़ल हुई है...

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