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ग़ज़ल : सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे

बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

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जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे

 

झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से

लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे

 

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में

पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे

 

कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ

स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे

 

भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर

सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे

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स्वरचित एवं अप्रकाशित

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:25pm

बहुत बहुत शुक्रिया संदीप साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:24pm

rajesh kumari जी, बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा। स्नेह यूं ही बनाये रखें। ग़ज़ल में घमंडी शेर भी चल जाते हैं :)

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:22pm

विजय मिश्र जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब, आगे भी स्नेह यूँ ही बना रहे।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:22pm

वीनस केसरी जी, जनाब आपको पसंद आई तो मन को थोड़ा सुकून मिला। बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:21pm

सौरभ जी आपके स्नेह से अभिभूत हूँ। स्नेह बनाये रखें। बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:19pm

बहुत बहुत धन्यवाद आशीष नैथानी 'सलिल' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:19pm

बहुत बहुत धन्यवाद बृजेश कुमार सिंह जी 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:16pm

बहुत बहुत शुक्रिया Dr.Prachi Singh जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2013 at 7:15pm

 बहुत बहुत धन्यवाद Laxman Prasad Ladiwala जी,रोहू एक मछली है जो खाई जाती है।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 1, 2013 at 2:50pm

वाह वाह आदरणीय धर्मेन्द्र सर जी सादर प्रणाम
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल क्या बात है
इक इक शेर मे आपकी छाप साफ नज़र आती है
हर शेर पे ढेरों दाद क़ुबूल फरमाइए

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