बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
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जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे
झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे
भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे
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स्वरचित एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया संदीप साहब
rajesh kumari जी, बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा। स्नेह यूं ही बनाये रखें। ग़ज़ल में घमंडी शेर भी चल जाते हैं :)
विजय मिश्र जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब, आगे भी स्नेह यूँ ही बना रहे।
वीनस केसरी जी, जनाब आपको पसंद आई तो मन को थोड़ा सुकून मिला। बहुत बहुत धन्यवाद
सौरभ जी आपके स्नेह से अभिभूत हूँ। स्नेह बनाये रखें। बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद आशीष नैथानी 'सलिल' जी
बहुत बहुत धन्यवाद बृजेश कुमार सिंह जी
बहुत बहुत शुक्रिया Dr.Prachi Singh जी
बहुत बहुत धन्यवाद Laxman Prasad Ladiwala जी,रोहू एक मछली है जो खाई जाती है।
वाह वाह आदरणीय धर्मेन्द्र सर जी सादर प्रणाम
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल क्या बात है
इक इक शेर मे आपकी छाप साफ नज़र आती है
हर शेर पे ढेरों दाद क़ुबूल फरमाइए
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