कुम्हार सो गया
थक गया होगा शायद
मिट़टी रौंदी जा रही है
रंग बदल गया
स्याह पड़ गयी
चाक घूम रहा है
समय चक्र की तरह
लगातार तेजी से
उस पर जमी
मिट्टी तेज धूप में
सूख गयी
उधड़ रही है
पपड़ियों के रूप में
पछुआ हवाओं के साथ
उड़कर आयी
रेत और किनकियां
चारों तरफ बिखरी हैं
रौशनी में चमकती हुई
उड़कर आंख में पड़ जाती है
जब तब
चुभती हैं
चारों तरफ बिखरे बर्तन
धीरे धीरे समय बीतने के साथ
टूटते जा रहे हैं
कच्चे और अधपके बर्तन
टूटकर मिट्टी में मिल गये
रेत और किनकियों के साथ
ठंडी पड़ती जा रही
भट्टी की आंच
अब बर्तन नहीं बचे
घर में
पानी पीने को भी
कुम्हार!
क्या जागोगे तुम?
जागो
इस आंच को तेज करो
उठाओ डंडी
घुमाओ यह चाक
इस रेत और किनकियों से इतर
तलाशो साफ मिट्टी
चढ़ा दो चाक पर
बना दो नए बर्तन
हर घर के लिए
ये सोने का समय नहीं।
- बृजेश नीरज
ओ बी ओ की वर्षगांठ पर सभी को मेरी शुभकामनाएं!
Comment
" सुंदर प्रस्तुति ... बहुत-बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी .
सुंदर आव्हाहन....
अच्छी रचना के लिए बधाई बृजेश जी .
आदरणीय शिखा जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद!
सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार
आपका आभार!
" सुंदर प्रस्तुति ... बहुत-बहुत बधाई"
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