शाम सी जिंदगी गुजरती है
रात कितनी करीब लगती है
याद नित पैरहन बदलती है
ये शमा बूंद बन पिघलती है
आंत महसूस अब नहीं करती
भूख पर आंख से झलकती है
हम जहां पर खड़े अभी तक थे
वो जमीं देखिए दरकती है
होम करने करीब आए तो
इस लपट से ये देह जलती है
- बृजेश नीरज
Comment
आदरणीय संदीप भाई आपका बहुत आभार!
वाह वाह क्या अंदाज है बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है
दाद क़ुबूल फरमाइए जनाब
जय हो
आदरणीया राजेश जी आपका आभार! आपको रचना पसन्द आयी मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया।
बहुत-बहुत सुंदर लिखा है आपने रदीफ काफिया वजन सब संपूर्ण है दिली दाद कबूले
भाई राम शिरोमणि जी आपका आभार!
वाह बृजेश भाई बेहद सुन्दर ग़ज़ल कही है ढेरों दाद कुबूल करें..
आदरणीय सलीम जी आपका आभार!
आदरणीय सौरभ जी आपका आभार! आपको रचना पसन्द आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ।
सादर!
ACHCHI GAZAL HAI NIRAJ BHAI ...UMDA KHYAL
होम करने करीब आए तो
इस लपट से ये देह जलती है... वाह !
ग़ज़ल को बावज़्न अच्छा निभाया आपने. दाद कुबूल करें..
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