गतांक...3 से आगे.---.
हां! मेरे ईष्ट देव मेरे साथ ही थे और मैंने जो कुछ देखा तथा अनुभव किया। अक्षरशः याद तो नही रहा फिर भी जितना प्रभु ने आदेश दिया स्पष्ट वाक्योे में लिख रहा हूं। मेरे दो शरीर थे। एक जो अस्पताल की शैया पर पड़ा था और दूसरा प्रभु नाम सुमिरन करता हुआ अज्ञात दिशा की ओर चला जा रहा था। राह में कितने दरवाजे पर दरवाजे खुलते जा रहे थे, गिनना मुश्किल था। हर इक द्वार लगता था कि अब यह आखिरी होगा किन्तु वही ढाक के दो पात। अंधेरे में दरवाजे के सिवाय कुछ और नहीं सूझ रहा था। मेरे मन का डर तो मानो छू मंतर हो चुका था। वह भी शायद हनुमान चालीसा और प्रभु नाम सुमिरन से भयभीत हो गया था। अचानक ऐसा लगा कि सामने का द्वार नहीं खुल रहा है। द्वार पर कोई द्वारपाल नही था और न ही कोई दूत ही नजर आ रहा था। बहुत देर तक जब कोई नहीं दिखाई दिया तो मैं और कोई रास्ता न देखकर उसी स्थान पर पालथी लगाकर बैठ गया। मन में प्रभु नाम का सुमिरन निरन्तर चल ही रहा था। काफी देर तक जब कोई हरकत नहीं हुई, तो मन में दुविधा भी अपनी जगह बनाने की होड़ में लगी हुई थी।
अतः मन चंचलता वश बीच-बीच मे दूसरे शरीर को भी देख लिया करता था। वह भी शैया पर पड़ा-पड़ा प्रभु नाम का श्वास-श्वास जप कर रहा था। कैसी धन्य की घड़ी थी, कि मैं चाहकर भी ईश्वर को धन्यबाद नहीं दे पा रहा था। इस नश्वर जगत में एक ही शरीर कोटि जतन के बाद मिलती है और उसमें भी लोग नाम का सुमिरन नहीं कर पाते हैं। आज मुझे दो शरीर प्राप्त हुए और दोनों से ही नाम सुमिरन की प्रकिया संचालित है। हे! प्रभु यह आप की कैसी लीला है? तभी ऐसा एहसास हुआ कि मेरे पास ही कोई प्रकट हुआ और उसने तत्काल ही मुझे गर्त में ढकेल दिया। मैं जलराशि में नीचे की ओर गिरता ही चला जा रहा था। मेरे द्वारा तैरने का लाख प्रयत्न करने पर भी मैं तैरने में असमर्थ रहा-फिर भी मैंने श्री हनुमान जी का ध्यान करके जल में ही पालथी लगा ली। तभी एकाएक कहीं से एक कछुए ने आकर मुझे अपने पीठ पर बैठा लिया और दूसरी दिशा की ओर लेकर चल पड़ा। मैं सुप्त सा हो गया फिर मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं रहा। जब मेरा ध्यान टूटा तो कछुआ नहीं था और जो दृश्य सामने था, वह बिड़ले को ही मयस्सर होता है।क्रमशः........5
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आ0 अशोक कुमार रक्ताले जी, हां जी, प्रभु प्रेम क्या कुछ नही करता है, सब उसी का दिया है। आपने पूरी कथा पढ़ी। आपके आशीष भरे स्नेह से मै कृत्य कृत्य हो गया। आपका हार्दिक आभार। सादर,
आदरणीय केवल प्रसाद जी सादर, सुन्दर कथा. लगता हिया प्रभु के सुमिरन का फल प्राप्त हो रहा है.
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