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याद तुम्हारी , कितनी प्यारी ,
धीरे-धीरे मन के आँगन में ,
चुपके से आ जाती हे |

याद तुम्हारी , बड़ी दुलारी ,
आँखों  से  , अंतर मन को ,
परम सुख पहुँचती हे |

कभी हँसाती याद तुम्हारी ,
कभी रूलाती हे मुझको ,
कभी थकाती याद तुम्हारी ,
कभी सुलाती हे मुझको |

याद तुम्हारी धूप छाँव सी ,
कभी हे बदली , कभी बरसती ,
याद तुम्हारी एक नाव सी ,
कभी हे थमती , कभी मचलती |

याद तुम्हारी व्यथित ह्रदय में ,
शूल भेद सी जाती हे ,
याद  तुम्हारी तीव्र वेग से ,
मन को तडफा जाती हे |

बस एक बार , सिर्फ़ एक बार ,
माँ तुम वापस आ जाओ ,
लगाकर मुझको अपने हृदय से ,
मेरा बचपन लौटाओ ,

माँ वहीं खड़ा हूँ , 
जहाँ खड़ा था ,
जहाँ तुमको देखा अंतिम बार ,
भूल गया सब रीत जगत की ,
भूल गया सब जग परिवार ,

देख रहा हूँ बस राह तुम्हारी ,
कब तुम वापस आओगी ,
थाम के हाथ अपने प्रिय का ,
अपने संग ले जाओगी ,

वहीं खड़ी हे मेरी नज़रें ,
जहाँ पर तुमने छोड़ दिया ,
ठहर गया अस्तित्व वहीं पर , 
जहाँ पर रास्ता मोड़ लिया ,

याद तुम्हारी उसी मोड़ पर ,
बार -बार ले जाती हे ,
याद तुम्हारी गहन वेदना ,
बन मन पर छा जाती हे ,

याद तुम्हारी -- एक प्रश्न ?
क्या तुम वापस आओगी ?
क्या तुम अपने प्रिय पुत्र को ,
जीवन दर्शन करवाओगी ?

  • अश्क 

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 13, 2013 at 9:37am

आ० केवल जी ,
आ० वंदना जी ,

उदय सूर्य हुआ , नभ मंडल में , सब दुनिया मे उजियारा हो ,
मन भाव उठें , संग शब्द सजे , तब मन का दूर अंधियारा हो .

आपके स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन के लिए आभार ,

सादर ,


अश्क

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 13, 2013 at 9:05am

आ0 अशोक कत्याल जी, सुप्रभात!  अतिसुन्दर रचना, हार्दिक बधाई स्वीकेरें।  सादर,

Comment by Vindu Babu on April 13, 2013 at 8:56am
आदरणीय कात्याल जी आपकी रचना भावों मे इस तरह डुबाने वाली है कि कुछ देर को लिए यथार्थ ही विस्मृत हो जाता है लगता है, दुनियां से विदाहो चुके हमारे स्नेही जन पुन: जरूर आएंगे। फिर माँ की छाप तो हमारे जीवन में नितान्त अमिट है।
काश ऐसा होता!
अति सुन्दर
सादर
Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 13, 2013 at 8:34am

सुश्री कुंती जी ,

आपने रचना को सराहा , मन द्रवित हो गया , ये सिर्फ़ एक काव्यात्मक
प्रस्तुति नहीं हे , मेरा जीवन हे , आज भी "माँ " इस स्वरूप मे मेरे साथ
हे , और हमेशा पथ-प्रदर्शक हे ,
आपको कोटि - कोटि ध्न्यवाद ,
अश्क

Comment by coontee mukerji on April 12, 2013 at 11:40pm

अश्क जी , आपकी रचना पढ़कर मैं कुछ पल खो सी गयी . काश ऐसा हो सकता ? बचपन में आकाश में तारों के देखकर बिन माँ का बच्चा यही समझता है कि उपर उसकी माँ है .कलांतर में जब उसे सच्चाई का पता चलता है तो वही दुख इस रचना में झलक रही है.

बहुत 2 बधाई .  सादर -कुंती.

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