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ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है

तुम जैसी नहीं

इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से..तुम !

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...  

कठोर !


********************

-सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by sharadindu mukerji on April 22, 2013 at 3:59am

आदरणीय सौरभ जी, ठीक आधी रात के समय आपने " सूरज " को आड़े हाथ लिया है. अपनी भावनात्मक कला से आप क्षितिज के पीछे जाकर दिवाकर से दो-दो हाथ करने में सक्षम हैं......लेकिन मेरे जैसा साधारण पाठक क्या करे ?? आपकी कविता के शीर्षक के बारे में हमारा ज्ञान वर्धन करें तो कृतज्ञ रहूंगा......जानता हूँ ऐसे ही नहीं लिखा गया है.....अवश्य ही कोई गूढ़ अर्थ है इसके पीछे, आपके द्वारा मार्गदर्शन की प्रतीक्षा में....सादर

Comment by coontee mukerji on April 22, 2013 at 2:46am


ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है

तुम जैसी नहीं.......कवि का युवा मन कुछ कुछ नाराज़ दिखता है ..........'


इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से..तुम /.......... मान  अभिमान के सागर में ,स्वयम डूबना फिर उबरना ,

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...  

कठोर !......   .....एक तरफ कवि का स्वाभिमान उसे झुकने नहीं देता है दूसरी तरफ उसका कातर मन हजार सवाल करता हुआ

अपने ही दर्श्न द्वारा जीवन का हल ढूढता है .......अंत में रह जाता पग तले कठोर जमीन , क्षणभंगुर जीवन की याद दिलाती.....

रीतते जाने का एहसास. /  आदरणिय सौरभ जी .. जितना मैंने समझा अपनी अल्प बुध्दि से  , इस रचना की व्याख्या कर दी .....अगर त्रुटि हों तो क्षमादान देते हुए मार्गदर्शन दीजियेगा ......विनीता /कुंती .

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