धरती का संताप
1
विलाप करती वसुमती – ‘ कह रही ‘
हे सागर ! उदधि महान !
उगता जब मेरे आँचल में
आकाश मण्डल दिशा
सूर्य चंद्र और नक्षत्र घटा
प्रताड़ित क्यों हूँ इतनी
बता ! कौन हैं मेरे अपने !
मर रहे नित्य वीर मेरे
शोक संतप्त हृदय हैं हो रहे
सूरज संग बैरी बना चंद्र
स्नेह देना था , दिया संताप -
वस्त्रहीन हो रही हूँ दिन प्रतिदिन.
2
हे प्रभु !
व्याकुल है प्राण मेरे
त्राहिमाम् ! त्राहिमाम् !
आठ वसुओं की प्यारी
पर – मच रही कैसी तबाही ?
दग्ध हृदय द्रवित मन
कैसे शांति पाऊँ भगवन् !
कहीं जंग कहीं दंग
वन उपवन है जल रहा,
वृष्टिहीन धरती, तप रही कहीं
कहीं सब जलमग्न हो रहा -
पड़ रहा अकाल , त्रस्त है प्रजा
रक्षक ही आज भक्षक है बना
प्रकृति भी नहीं कर सकती रक्षा
आयु अशेष देकर मत खींचो प्राण !
हे भगवन ! त्राहिमाम् ! ! त्राहिमाम् ! ! !
----कुंती
( पृथ्वी दिवस के अवसर पर – मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीया कुंती जी/ सुन्दर प्रस्तुति। बधाई स्वीकार करें।
अर्थ दिवस पर धरती की वेदना से अवगत कराती सुन्दर रचना पर सादर बहुत बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीया कुंती जी.
आठ वसुओं की प्यारी
पर – मच रही कैसी तबाही ?
दग्ध हृदय द्रवित मन
कैसे शांति पाऊँ भगवन् !
कहीं जंग कहीं दंग
वन उपवन है जल रहा,............AADARNIYAA coontee mukerji JI ..SHRESHTH BHAAVON KO SAMAAHIT KIYE HUYE ..AAPKI LEKHNI KO NAMAN .....HARDIK BADHAI .........!!
आदरणीया कुंती जी:
//स्नेह देना था , दिया संताप -
वस्त्रहीन हो रही हूँ दिन प्रतिदिन. //
सदैव समान आपसे एक और सुन्दर रचना मिली।
बधाई।
सादर,
विजय
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ................. |
प्रिय कुंती जी, पृथ्वी दिवस पर एक प्रासंगिक एवं सुन्दर रचना .............धरती की पीड़ा को मुखरित करती .............हमारे अंतस को झकझोरती और हमें धरती को बचाने का सन्देश देती हुई रचना ............बधाई हो।
धरा की अंतर व्यथा, दुर्दशा पर निकली चीत्कारों को सुन्दर शब्दावरण मिले हैं .....
आयु अशेष देकर मत खींचो प्राण !
हे भगवन ! त्राहिमाम् ! ! त्राहिमाम् ! ! !
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए बधाई आ० कुंती जी
आ0 कुन्ती जी, सादर प्रणाम! सुन्दर प्रस्तुति। सादर बधाई स्वीकार करें।
मनोज जी एवम वंदना जी , रचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद .सादर कुंती .
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