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बचपन तुम बार बार

पीछे से बुलाते हो |

एक दिन सोचूंगी मैं  

कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं  

तितलियों से आगे 

कागज का जहाज

उडाऊं मैं |

अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है

और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है

पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं

इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं

तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं मैं|

 

जिस दिन थक कर चूर हो जाउंगी

और इस जंगल के लिए अवांछित  हो जाउंगी

झड चुके सूखे पत्तों में भी ठौर न पाऊंगी

तब जब खुद का बोझा उठा न पाउंगी|

और हरियाले जंगल से निष्काषित कर दी जाउंगी मैं......

उस दिन मेरे साथी मेरे बचपन

तुम पीपल की छाँव तले आना

मुझे अपने गले लगाना

भूल न जाना पुराना पगडंडियों वाला रस्ता

साथ में ले आना स्कूल का बस्ता

माँ के हाथ का टिफ्फिन रोटी खायेंगे   

फिर हम कागज की नाव बहायेंगे

तितलियों के पीछे उड़ते चले जायेंगे  

चन्दा की नगरी में

परियों की बस्ती में

एक बेफिक्र जीवन होगा 

अबकी न बिछडेंगे हम  

बचपन तुझसे मिलने आयेंगे हम ............................. 

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Comment

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Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 23, 2013 at 6:15pm

धन्यवाद श्याम जी...

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 23, 2013 at 6:14pm

धन्यवाद आदरणीय निकोर जी... 

Comment by vijay nikore on April 23, 2013 at 3:54pm

आदरणीया नूतन जी:

 

मार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Shyam Narain Verma on April 23, 2013 at 3:48pm

BAHOT KHOOB.......................

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