उसने खौला लिया था सूरज एक चम्मच चीनी के साथ
वह जीवन के कडुवे अंधेरों में कुछ मिठास घोलना चाहता था
उसके दिन के उजाले चाय के कप में डूबे हुए थे
और उसका सूरज
ताजगी देता हुआ जीवन की उष्मा से भरपूर
गर्म शिप बनकर उतर आता था लोगों की जिव्हा पर …
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on November 7, 2014 at 11:00am — 16 Comments
वह माटी थी पर नहीं थी वह ...जिसे कुम्हार ने माजा चाक पे चढ़ाया, गढा, चमकाया बाजार में बिठाया ... वह तो किस्मत की धनी थी पर वह ? वह तो सिर्फ उसके बगिया की माटी थी उसके पैरों तले गाहे बगाहे आ जाती ... कुचली जाती रही .. टूटती रही, खोदी जाती रही, तोडी जाती रही ..... और बदले में रंगबिरंगे फूलों से फलों से अपनी हरियाली को सजा कर बगिया को महकाती रही .... यही तो था उन् दोनों के अपने अपने हिस्से का आसमान .. लेकिन उन् दोनों के लिए एक आसमान से इतर एक दूसरा आसमान किसी बंद दरवाजे से बाहर भीतर…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on October 4, 2013 at 9:30pm — 17 Comments
वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है ...
घंटों वह अपनी एक खास भाषा मे हँसती है
जिसका उसे अभी अधूरा ज्ञान भी नहीं
उसके ठहाके से ऐसे कौन से फूल झड़ते है
जो किसी खास जंगल की पहचान है .... ...
जबकि उसकी रूह प्यासी है
और वह रख लेती है निर्जल व्रत
सुना है कि उसके हाथों के पकवान
से महका करता था पूरा गाँव भर
और घर के लोग पूरी तरह जीमते नहीं थे
जब तक कि वे पकवान मे डुबो डुबो कर
बर्तन के पेंदे और
अपनी उँगलियों को चाट नहीं लेते अच्छी तरह…
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on August 19, 2013 at 9:00am — 11 Comments
मेरे आजाद देश की
बेहतरीन खिलाडी
बिना डोपिंग परिक्षण के,
महंगाई हो गई है
दौड़ती है सबसे आगे
तेज धावक की तरह
मारती है सबसे ऊँची
छलांग
पहुंचना चाहती है
सबसे पहले
बाहरवें आसमान|
और रुपया बेचारा
मुंह उतारे
लुढ़क रहा है नीचे नीचे
अपना ही बाजार सौतेला हो गया जिसके लिए
जैसे इस मंडी से नाराज
वह मुंह छुपाना चाहता हो
प्रचलन से बाहर किसी तरह से
निकल आना चाहता हो
वह…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on August 15, 2013 at 6:00am — 13 Comments
कुछ शहनशाहों के तख़्त
कुछ ऊँचे पर्वतों के शिखर
कुछ ऊँचें अटार
कुछ ऊँचें लोग अपने कद से भी बहुत ऊँचे
आम आदमी पहुँच नहीं पाता उन तक
और सिर झुकाए निराश है
पर देखो
लाख किरकिराती है
किसी को फूटी आँख नहीं सुहाती है
फिर भी धूल बही जाती है बेफिक्री में
बिना दुःख और मलाल के
और होता भी है यह है कि
आदी कैसी भी हो
अंत उसके सुपुर्द होता है .... ~nutan~
मौलिक अप्रकाशित
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on July 7, 2013 at 5:30pm — 2 Comments
मित्रों! आज पहाड़ मे आई इस भीषण त्रासदी के वक्त कुछ बाहरी असमाजिक तत्व (जो कि पल्लेदारी और मजदूरी के लिए यहाँ आयें हैं) अपनी लोभ लिप्सा के लिए बेहद आमानवीय हो गए है. उनका मकसद पैसा जुटाना और फिर यहाँ से भाग कर अपने देश/ गाँव जाना है. ये लोग गिरोह के रूप मे सक्रिय हैं. इनकी वजह से अपने पहाड़ के सीधे साधे लोग बदनाम हो रहे हैं. अभी कुछ नेपाली मजदूर भी पकडे जा जुके हैं जिनके पास सोने की माला और लाखों रूपये मिले. यहाँ तक कि सुना है करोड से ऊपर रुपये भी मिले अब चूँकि हर…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 23, 2013 at 12:00pm — 15 Comments
हम तुम रेल की बर्थ पर बैठे ठकड़ ठकड़ कितनी देर तक वो आवाजें सुनते रहे ...शायद तुम्हारे भीतर भी एक जीवन चल रहा था और मेरे भीतर भी पुरानी यादों का चलचित्र .... शायद उन यादों की कडुवाहट उनकी मिठास को सुनने वाला समझने वाला कोई न था .... कुछ जंगल हमारे साथ चलते थे और कुछ पेड़ पीछे छूटते जाते थे ...…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 4, 2013 at 9:30pm — 12 Comments
तुम्हारा मेरा होना
जैसे न होना एक सदी का
वक्त के परतों के भीतर
एक इतिहास दबा सा |
जैसे पाषाण के बर्तनों मे
अधपका हुआ सा खाना
और गुफा मे एक चूल्हा
और चूल्हे में आग का होना |
तुम्हारा मेरा होना
जैसे खंडहर की सिलाब में
बीती बारिश का रिमझिम होना
और दीवारों की नक्काशियों में
मुस्कुराते हुए चेहरों का होना.............
तुम्हारा होना
जैसे कोयले की अंगार के पीछे
हरियाले बरगद की छाँव का होना
जहाँ सकुन की…
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on May 29, 2013 at 12:21am — 10 Comments
हम अपने अपने हिस्से का पानी लिए जिए जा रहें है...
देह में मचलता हुआ, लहू में बहता हुआ
और लोग जो अपनों के साथ हर सुख दुःख मे ढल जाते हैं
हर उस आकार में जिसमें
उस घडी उनका अपना उन्हें होना देखना चाहता है
वह उनके लिए पानी सा हो जातें है .......
तो है न यह अपनों का संसार|
फिर तुम मैं
कहाँ .... दो किनारों से
अपने अपने हिस्से के पानी के साथ बढते हुए, उन्हें थामे हुए|
कभी न मिलने के लिए|
और मैं हर…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on May 21, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
पीछे से बुलाते हो |
एक दिन सोचूंगी मैं
कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं
तितलियों से आगे
कागज का जहाज
उडाऊं मैं |
अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है
और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है
पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं
इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं
तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 23, 2013 at 11:00am — 14 Comments
कभी कभी शब्द आकार नहीं लेते
और मैं बह जाती हूँ अक्षरों में
सुनो ध्यान से ये क्या कहते है ?
खामोश हैं ???
नहीं इनमे कलकल का नाद…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 4, 2013 at 8:36pm — 9 Comments
खुशियाँ जब जब आई हैं
मैने मुट्ठी भर भर बिखरा दिया है चारो तरफ
इस आशा से और दुवाओं से
कि लहलहाए खुशियां की हरियाली चारो दिशा|...
कल…
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 17, 2013 at 7:24pm — 4 Comments
ओ बी ओ महोत्सव २९ - विषय - रंग पर यह कुछ लिख डाला था पर सुबह देखा कि वह तो सिर्फ १० तारीख तक ही के लिए था जबकि आज तो ११ तारीख है| अब सोचा क्यूँ ना उस विषय की इस पोस्ट को यहाँ ओ बी ओ के ब्लॉग में ही डाला जाए, तो अब उस आड़ी तिरछी रचना को अपने पन्ने पर रख रही हूँ ...
इस बीच
मैंने पाया है…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 11, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
मैं महिलाओं और बच्चियों को शुभकामना देती हूँ कि जरूर समाज में जल्दी ही एक साकारात्मक परिवर्तन आएगा, जब पुरुष महिला दो अलग इकाई नहीं बल्कि इस देश के और समाज के बराबर नागरिक होंगे, और घर में भी लड़की लड़के को बराबर दर्जा मिलेगा |
और उनके लिए शुभकामना सन्देश ---
वो खिले रहें फूलों की तरह…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 8, 2013 at 6:30pm — 4 Comments
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