वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है ...
घंटों वह अपनी एक खास भाषा मे हँसती है
जिसका उसे अभी अधूरा ज्ञान भी नहीं
उसके ठहाके से ऐसे कौन से फूल झड़ते है
जो किसी खास जंगल की पहचान है .... ...
जबकि उसकी रूह प्यासी है
और वह रख लेती है निर्जल व्रत
सुना है कि उसके हाथों के पकवान
से महका करता था पूरा गाँव भर
और घर के लोग पूरी तरह जीमते नहीं थे
जब तक कि वे पकवान मे डुबो डुबो कर
बर्तन के पेंदे और
अपनी उँगलियों को चाट नहीं लेते अच्छी तरह ........
खिलती हुई कली सी थी बेहद नाजुक
गाँव की एक सुन्दर बेटी
घर के अंदर महफूज़ रहना भाता था उसे ........
पर वह चराती थी बछिया
ले जाती थी गाय और जोड़ी के बैल
सबसे हरे घास के पास
बीच जंगल में ...
एक रोज
दरांती के वार से भगाया था बाघ
छीन कर उसके मुंह का निवाला
उसने नन्ही बछिया को बचाया था …………………….
तब से वह खुद के लिए नहीं
बाघ से गाँव के जानवर बच्चों को बचाने
की बात सोचती थी
टोली मे सबसे आगे जाती थी जंगल
दरांती को घुमाते हुए ...............
उसे भी अंधेरों से लगता था बहुत डर
जैसे डरती थी उसकी दूसरी सहेलियां
पर दूर जंगलों से लकडिया लाते
जब कभी अँधेरा हुआ
खौफ से जंगल मे
लडकियां में होती बहस
उस नाहर के किनारे
रहता है प्रेत .... ..
कौन आगे कौन पीछे चले
सुलझता नहीं था जब मामला
बैठ जाती थी लडकियां
एक घेरे में
और कोई होता नहीं था टस से मस
भागती थी वह अकेले तब
उस रात के घोर अँधेरे में
पहाड़ के जंगलों की ढलान मे
जहां रहते थे बाघ और रीछ
और गदेरे के भूत .. ..
फिर हाथ मे मशाल ले
गाँव वालों के साथ आती थी वापस
पहाड़ मे ऊपर
जंगल मे वापस .............
वह रखती थी सबका ख्याल घर मे
सुबह उनके लिए होती थी
उन्ही के लिए शाम करती थी
बुहारती थी घर
पकाती थी भोजन और प्यार का लगाती परोसा.
सुना कि उधर चटक गयी थी हिमनद
और पैरों के नीचे से पहाड़
बह गया था
बर्तन, मकान, गाय बाछी
खेत खलिहान
सब कुछ तो बह गया था ...............
कलेजे के टुकड़े टुकड़े चीर कर
निकला था वो सैलाब
अपनों की आखिरी चीख
कैसे भूलती वह ...........
वह दहाड़ मार कर रोना चाहती है और
वह कतई हँसना नहीं चाहती है मगर
देखा है उसे
आंसू को दबा कर
लोगों ने
हँसते हुए
और झोपड़ी को फिर से
बुनते हुए .................
जानती है वह
बचा कुह भी नहीं
सब कुछ खतम हो गया है ...
मानती है फिर भी
किसी मलबे के नीचे
कही कोई सांस बची हो ....
नदी के आखिरी छोर से
पुनर्जीवित हो
कोई उठ खड़ा हो
और चला आये उस पहाड़ की ओर ... ....
इस मिथ्या उम्मीद पर
भले ही वह झूटे मुस्कुराती हो
पर एक आस का दीपक जलाती है
पहाड़ मे फिर से खुशहाली के लिए...............
पहाड़ की एक स्त्री थी वह "मां"
~ nutan~
~ मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत ही सुंदर रचना | ऐसा प्रतीत हुआ जैसे शब्दों से चित्र उभर कर आ रहें हैं | हार्दिक बधाई आदरणीया |
आदरणीय सौरभ जी... आपका सादर धन्यवाद ..आपने गलत ढंग से पोस्ट हुई रचना को व्यस्थित तरीके से प्रक्स्षित किया ... आपका मेरी इस रचना पर यह टिप्पणी जरूर मुझे खुशी दी रहा है कि मेरी रचना उत्तीर्ण हुई... और मैं खुद को लिखने योग्य समझ रही हूँ ... आपको तहेदिल शुक्रिया ...
आदरणीया नूतन जी, आपकी संवेदनशील दृष्टि ने जिस सात्विकता से तड़प और अनुभूत के कचोटपन को शब्दबद्ध किया है वह आपके व्यक्तित्व का मुखर आयाम है. प्रस्तुत रचना अपनी दशा से आप्लावित करदेती है और अंग्रेज़ी के बॉलाड का प्रभाव देती है.
बहुत-बहुत बधाई आपकी इस कविता के लिए.
प्रस्तुत रचना गलत ढंग से पोस्ट हो गयी थी. कुछ टुकड़े दो बार पेस्ट हो गये थे. अब सुधार हो गया है. देख कर अनुमोदित कीजियेगा.
सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी..
आदरणीय सौरभ अग्निहोत्री जी
आदरणीय जितेन्द्र गीत जी..
आदरणीय अनुपमा बाजपई जी
आदरणीय विनीता शुक्ल जी
आदरणीय राम शिरोमणि जी ........ मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि मेरी यह रचना आपको भाई ... मेरे इस प्रोत्साहन के लिए आपका तहे दिल शुक्रिया ..
जानती है वह
बचा कुह भी नहीं
सब कुछ खतम हो गया है ...
मानती है फिर भी
किसी मलबे के नीचे
कही कोई सांस बची हो ....
नदी के आखिरी छोर से
पुनर्जीवित हो
कोई उठ खड़ा हो
और चला आये उस पहाड़ की ओर ... ....
इस मिथ्या उम्मीद पर
भले ही वह झूटे मुस्कुराती हो/////////////मार्मिक अभिव्यक्ति बहुत बहुत बधाई आदरणीया नूतन जी
"इस मिथ्या उम्मीद पर
भले ही वह झूटे मुस्कुराती हो
पर एक आस का दीपक जलाती है
पहाड़ मे फिर से खुशहाली के लिए" अत्यंत सुन्दर, मार्मिक अभिव्यक्ति. बहुत बहुत बधाई नूतन जी.
मर्मस्पर्शी रचना पर बधाई आदरणीया डा. नूतन जी
वाह नूतन जी ! एक-एक पंक्ति दिल को छू गयी। क्या कहूँ निश्शब्द हूँ !
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