(1)
कब मैंने तुमसे
वादा किया था कोई
अपने को मैंने कब बंधन में बाँधा
जो किया , तुमने ही किया
हर सुबह आलस्य तजकर
पूजा की थाल सजा
अरूणोदय होता तेरे दर्शन से .
(2)
मिथ्या लगी
जग की सारी बातें
जब मैंने तुमसे प्रीत की
अब क्रोध करूँ या मान करूँ
या करूँ अपने आप पर दया
रीति रिवाजों के नाम पर
खींच दी तुमने सिंदूर की लम्बी रेखा
भाग्य ने लिख दी माथे पर मृत्युदण्ड
चेहरे पर घूँघट खींचकर .
(3)
मौत का कहीं नामोनिशान नहीं
खामोश है तक़दीर
एक अदृश्य भय मन को सालता
सुहाग बिंदी दर्पण से पूछती
‘’ कब तक है अस्तित्व मेरा ? ‘
(4)
कितने सवाल उठते हैं ,
मगर अधूरे ,
मन की आशाएँ उतनी ही चंचल ,
सागर में उठती जितनी लहरें
आकाश में जितने हैं उड़ते बादल .
(5)
सदियों से नारी पूछ रही
है सवाल !
कभी कन्या कभी भार्या बन कर
कहाँ है मेरे पग तले की जमीन ?
इतनी बड़ी धरती में
मैं क्यों अस्तित्वहीन ?
Comment
आप सभी को मेरा प्रणाम , जब से मैं ओ बी ओ से जुड़ी हूँ मैंने देखा है यह मंच सिर्फ़ काव्य प्रस्तुति नहीं , विविध विषयों के मंथन के साथ ही एक पारिवारिक मंच भी है जहाँ हम अपने मन के उद्गारों को उन्मुक्त हो कर व्यक्त कर सकते है . अच्छी प्रस्तुति पर जहाँ पुरस्कार मिलते हैं .. वहीं गलती करने पर डंडे भी पड़ते हैं .... और मुझे डंडे से बहुत डर लगता है . डाक्टर मुकर्जी एक रचना को सौ बार पढ़वाते है तब मेरी रचना को यह मंच नसीब होता है ...... कहते हैं अच्छा साहित्य पढ़ो .....मनन करो ....तब लेखनी में गुण पैदा होगी ..बाप रे कितनी सारी बंदिशें....... क्या होता अगर चाकलेट जैसा सबकुछ आसान होता ........
शुभेच्छु / कुंती .
कभी कन्या कभी भार्या बन कर
कहाँ है मेरे पग तले की जमीन ?
इतनी बड़ी धरती में
मैं क्यों अस्तित्वहीन ?
आदरणीय कुंती जी
सादर
सुन्दर भाव एवं प्रस्तुतिकरण हेतु बधाई.
वास्तव में नारी की स्थिति में आज भी कोई परिवर्तन नही दिखता.
बहुत सुंदर भाव और उत्तम प्रस्तुतीकरण के लिए हार्दिक बधाई, कुंती जी...
श्रद्धा के प्रश्न नहीं होते. यह प्रश्नहीन हुआ करती है. किन्तु आपसी समझ को मिली ठोस धरातल की अनायास ठेस वायव्य भावनाओं को झंझोर डाले तो परस्पर आश्रित होने का भाव मात्र हठ हो कर रह जाता है, जिसके अंतहीन प्रश्न हुआ करते हैं जो ’विश्वास’ पर आश्रित संबन्धों को रेशा-रेशा कर डालते हैं.
आपकी पाँचों भाव-दशा अद्भुत संप्रेषणीय है, आदरणीया कुन्ती जी.
मानवीय संबन्धों की टेक बहुत गूढ़ होती है. उसमें भी स्त्री-पुरुष के संबन्ध सदा से महीन तार से बन्धे होते हैं जिसका अस्तित्व परस्पर विश्वास से ही प्राण पाता है. उसमें घर कर गयी एकाकी व्यथा उद्विग्न कर डालती है. एक व्यथित एवं संवेदनशील स्त्री की दशा शब्द पा गयी है.
सादर
आदरणीया कुंती जी।
सदैव की तरह भावपूर्ण,विशिष्ट विचारों से पूरित अति उत्तम रचना ...
बहुत कुछ सोचने को बाधित कर रही है। आपको अनेकानेक बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आ0 कुन्ती जी, सच्चाई के परिवेश में यह एक विडम्बना ही है। मानव का सम्पूर्ण जीवन बस प्रश्नों से ही घिरा हुआ है। इन प्रश्नो का उत्तर बस आस्था, विश्वास, श्रध्दा, धैर्य और एक लम्बी सी जुदाई, जो हरपल याद दिलाती है कि हमें निरन्तर प्रश्नों से दो-दो हाथ करना है। बहुत ही सुन्दर, सार्थक और विचारगम्य रचना। बहुत बहुत हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
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