देवता ! मुझे शरण दो !
अस्सी साल की बुढ़िया ,
लाठी टेकती आयी ,
गुहार करने
मंदिर आंगन द्वार .
हाथ उठाकर ,
घण्टी भी बजा न सकी .
जर्जर काया जीवन से त्रस्त ,
और दुखित -
अपनों से सतायी हुई, उपेक्षित .
माँग रही थी मृत्यु का वरदान ,
पर – देवता सोये थे निश्चिंत .
कम्पित कर जोड़े ,
साथ न दे रही थी
थर्राती वाणी.
‘’ मैया ! घर जाओ ‘’ बोले पुजारी
‘’ कहाँ जाऊँ बेटा, कहीं नहीं कोई ‘’.
जो कुछ था लूट लिया अपनों ने ,
‘’ पर वे सुखी रहें ‘’ बोली दुखिया .
फिर होंठ हिले
‘’ मुझे उठा लो देवता ! ‘’
‘’ दे दो मुक्ति ,
तेरे चरणों में सर पटकूँ अपना “ -
‘’ मैया ! अभी बाकी है दाना पानी तेरा,
जब तक है प्राण , पड़ेगा जीना
यह किसी के वश में नहीं –
सबका कर्म अपना - अपना
देवता को कर दो अर्पण
तन मन सारा .’’
रोती कलपती उठी , चली मैया ,
राह पथरीला, पथराई दृष्टि .
हरि नाम जपती ,
माँग रही थी दुहाई ,
प्रकृति भी रोई, गहरी श्वास छोड़ी
मगर -
देखता रहा ,
टुकुर टुकुर
मंदिर का देवता .
Comment
मगर -
देखता रहा ,
टुकुर टुकुर
मंदिर का देवता
आदरनिया सादर बधै
मारमिक,
मार्मिक रचना! दिल को दूर तक छू गयी। बधाई आपको।
आप सब की कृपा बनी रहे .../ सादर / कुंती .
यथार्थ जीवन के कटु सत्य को दर्शाती सुन्दर मार्मिक रचना. आदरणीया कुंती जी.
आजकल तो हर कोई अपनों से ही लुट रहा है | नेकी करते हाथ जल रहे है पराये ही कंधा दे रहे है
इन्ही भावो में रची सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया कुंती जी
आदरणीया कुंती जी:
ऐसा ही कितने माता-पिता के साथ हो रहा है...
वह जो बच्चों को कंधे पर उठा सकते थे, अब बच्चे
उन्हीं को कंधा नहीं दे सकते..। आपकी रचना सदैव
वास्तविक्ता के कटु सत्य से रंगी होती है।
बधाई। लिखती रहें, आनन्द देती रहें।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आ0 कुन्ती जी, ’’जो कुछ था लूट लिया अपनों ने,
’पर वे सुखी रहें’ बोली दुखिया।’’ वाह रे! मां, ^अबला तेरी यही कहानी...आंचल में है दूध और आंखों में पानी^ ...सदा से यही होता आया है। अतिसुन्दर रचना। बधाई स्वीकारें। सादर,
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