कहता है नर सदियों से
‘’ हे नारी !
पड़े सागर तल में
सीप में जो मोती द्वय
या – तुम्हारे दो नयन हैं ! .
तुम रूपजाल हो या –
तुम्हारे अंग – अंग में
प्रकृति अटकी हुई है .’’
नारी कहती है
हे नर !
‘’ मैं ही अक्ष हूँ .
मैं ही आँसू
मोती भी
और सीप भी हूँ -
तुम्हारे लिये ही
मैं रोती हूँ, हँसती हूँ,
सजती हूँ, गाती हूँ
समझो न मुझे तुम रूपजाल
मैं प्रकृति की छाया हूँ
मही मेरी जननी है ‘’
( नर-नारी जन्म-जन्मान्तरों से हैं
एक दूसरे के हृदय में विराजमान
कभी रूप कभी रस तो कभी गंध
बन, खिले मुरझाए हैं जीवन वन )
Comment
पस्पर विश्वास ही पूरक होने की आ्वस्ति का मूल हैं. इस तथ्य की रोचक प्रस्तुति हुई है.
सादर बधाई, आदरणीया.
आदरणीया कुन्ती जी, वाह! क्या खूब? शानदार, आत्मा-परमात्मा का सुन्दर मिलन, एकाकार-कस्तूरी सा एहसास। तहेदिल से हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया coontee mukerji जी,
तुम्हारे लिये ही
मैं रोती हूँ, हँसती हूँ,
सजती हूँ, गाती हूँ
समझो न मुझे तुम रूपजाल
मैं प्रकृति की छाया हूँ
मही मेरी जननी है ‘’
मन को छू गई है.
मर्मस्पर्शी कविता अच्छी लगी.
बधाई!
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ. |
आदरणीया कुंती जी:
नर-नारी की गुत्थियों की सुन्दर अभिव्यक्ति।
बधाई।
सादर,
विजय निकोर
बहुत बहुत धन्यवाद , आदरणिय प्रदीप जी .
bahut hii sundr abhivyakti hetu
hardik badhai swikar karen mahodya ji
saadr
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