वाह रे खुदा!
हैरान हूँ तेरी खुदाई देखकर;
तेरी मेरी भावना से
मानव की पाटी खाई देखकर|
ना उसे मिला कुछ
ना ही कुछ इसे मिला;
फिर क्या बकवास नहीं
दुश्मनी का ऐसा सिला?
चिराग जला करे घर रोशन
अपने घर की मुंडेरों से;
तो क्या खता, गर रहबर कोई
बचाए खुद को ठोकरों से?
पर नहीं, बिलकुल नहीं
मानव को यह सुहाता नहीं;
अपना घर रोशन भले ना हो
दूसरे को रास्ता दिखाना भाता नहीं|
आज की पारी तेरे नाम तो क्या
कल के बाद परसों भी आएगा;
मत भूल ऐ रे मानव!
तब क्या खुद को पहचान पायेगा?
- उषा तनेजा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
Respected Usha ji, Thanks for your blessings! It is all your blessings which worked for me! Thanks a lot.
आदरणीया आपकी कविता को पढ़ने वाला क्या समझे? कविता पाठक के लिए होती है न कि केवल खुद के लिए। बहरहाल बधाई।
आदरणीय बृजेश कुमार सिंह जी, टिपण्णी के लिए हार्दिक आभार!
गलती खुदा की हो या मानव की, गलती तो गलती होती है; मानव से हो तो खुदा से माफ़ी, खुदा से हो तो 'उस' की रज़ा होती है.
आदरणीय PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA जी, ऐसा हो सकेगा या नहीं, मैं कुछ कह सकती नहीं; पत्थर हमने तबीयत से... , छेद आसमान में होगा ही.
सादर आभार प्रोत्साहन के लिए.
अपनी कृपा बनाये रखियेगा.
आदरणीय Laxman Prasad Ladiwala जी, सादर नमन. आप जैसे दोस्त हैं संग, तो फिर कैसा गम; जितनी भी हों मुश्किलें, सीखते जायेंगें हम.
आदरणीय अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, आपकी बधाई के लिए हार्दिक धन्यवाद. मैंने इस कविता के ज़रिये कोशिश की है कि खुद को ही सामने रखा जाए. माना कि साहित्य समाज में सुधार ला सकता है पर बुराई की पृष्ठभूमि में खुद को आइना दिखाया जाये तो अच्छा रहता है.
आदरणीय Ashok Kumar Raktale जी, बहुत बहुत शुक्रिया. आपने एक सुझाव दिया है ग़ज़ल प्रस्तुत करने का. यही ख़्वाब आजकल मेरे दिल व दिमाग में पनप रहा है पर मैं किसी ऐसे गुरूजी की खोज में हूँ जो मेरी हर शंका को तसल्ली से दूर कर सके. ग़ज़ल के जितने भी नियम मैंने पढ़े है, वे सभी, मेरे हिसाब से सभी गजलों पर फिट नहीं बैठते हैं. इसीलिए मेरे गुरूजी ही इस का समाधान सुझा सकते है. देखते हैं कौन बनाते हैं मुझे अपनी शिष्या!
क्या आप मेरे लिए दुआ करेंगें?
आपकी इस रचना पर आपको ढेरों बधाई!
रचना शुरू हुई खुदा की गलती से और खत्म हुई मानव की गलती से। गलती किसकी खुदा की या मानव की?
आज की पारी तेरे नाम तो क्या
कल के बाद परसों भी आएगा;
मत भूल ऐ रे मानव!
तब क्या खुद को पहचान पायेगा?
वासतव मे kya aesa ho sakega
badhai, sadr
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