मेरे प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी।
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी।
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का अभिमान,
न मीरा का सतीत्व।
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व।
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व।
काश! तुम समझ पाते,
मेरे जीवन की आश,
जैसे धरती और आकाश,
वही अधूरी प्यास,
तुम्हें पाने का एहसास।
शायद इसीलिए, अब तक,
चल रही थी साँस।
आज फिर वही तन्हाई है,
फर्क इतना- सा है,
कि तुम्हें मुझसे छुड़ाने,
स्वयं मौत चलकर आई है।
कैसे उसे समझाऊँ,
कि मैं एक विक्षिप्त हूँ।
तुम्हारी स्मृतियों के ,
अवसादों से लिप्त हूँ।
आज भी व्याकुल ,
विवश और, रिक्त हूँ।
करोड़ों सृष्टियाँ होंगी,
और करोड़ों जन्म।
यह आत्मा ढुढ़ेगी,
जीवन का मर्म।
मगर इसे मुक्ति न मिलेगी.
इस अधूरी आत्मा को,
कभी तृप्ति न मिलेगी।
क्योंकि मैं तुम्हारी हूँ।
सिर्फ तुम्हारी.........
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आप सभी का। खूबसूरत प्रतिक्रियाओं के लिए। मैं बेहतर और श्रेष्ठ रचनाओं के लिए प्रयासरत रहूँगा।
बहुत सुन्दर प्रयास! आपको बधाई!
भाई विक्षिप्तता और विरह की वेदना में फर्क होता है। आपकी कविता कहीं से प्रेमिका के विक्षिप्त होने को नहीं उकेरती।
सादर!
धन्यवाद विजय जी। आप सभी बड़ों का आशीर्वाद सर आँखों पर।
आपकी कविता में भाव अच्छे लगे।
आप एक अच्छे कवि बनने के मार्ग पर हैं
सादर,
विजय निकोर
शुक्रिया इस प्रोत्साहन के लिए। हालांकि मंच से जुड़े हुए एक-दो महीने बीत गए हैं मगर व्यस्तता के कारण ज्यादा रचनाएँ पोस्ट नहीं कर पाया।
आदरणीय कुंदन कुमार सिंह जी सादर, मंच पर आपकी रचना प्रथम ही पढ़ रहा हूँ. बहुत सुन्दर रचना है. बधाई स्वीकारें.
आ0 कुन्दन जी, अतिसुन्दर भाव, सुन्दर लय और समपर्ण। शुभकामनाओ सहित हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
प्रयासरत रहें और इस मंच के अन्य रचनाकारों की सुगढ़ रचनाओं को पढ़ कर अपनी टिप्पणियाँ दें, कि, आपने उन रचनाओं में क्या पाया, समझा.
इस प्रस्तुति हेतु शुभेच्छाएँ.
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