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माँ तुम मेरी सहेली हो

माँ तुम अबूझ पहेली हो 
माँ तुम मेरी सहेली हो 

स्नेह की  डोर से बंधी 

ममता की तुम मूरत हो 
हर लेती मेरे दुखो को 
उस ख़ुदा की ही सूरत हो 
मेरा सोता हुआ चेहरा भी 
जाने कैसे पढ़ लेती हो 
कितनी अलाओं बलाओं से 
मुझ को रोज बचाती हो 
निकलती हूँ जब भी घर से 
नजर का टीका  लगाती हो 
भर के नए जज़्बे मुझ मे
हार को जीत बनाती हो,
दे के प्यारा सा एक बोसा
माथे पर तिलक लगाती हो,
नेह भरे स्पर्श से तुम
सारे दुःख हर जाती हो..
माँ तुम अबूझ पहेली हो 
माँ तुम मेरी सहेली हो .....

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by अरुन 'अनन्त' on May 9, 2013 at 10:42pm

वाह आदरणीया दिव्या जी वाह अत्यंत सुन्दर माँ को समर्पित ह्रदय स्पर्शी सुन्दर रचना हेतु ह्रदय के अन्तः स्थल से ढेरों बधाई स्वीकारें.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 9, 2013 at 10:18pm

आ0 दिव्या जी, मां अबूझ पहेली नही बल्कि एक आत्मा एक रूह और एक साया बनकर सदैव हमारे साथ रहती है। और जब कभी हमें भगवान की जरूरत होती है तो सबसे पहले मां सामने आती है। मां आईना, मां गंगाजल और मां नयन सी नूर है। शेष... ’’हर लेती मेरे दुखो को
उस ख़ुदा की ही सूरत हो
मेरा सोता हुआ चेहरा भी
जाने कैसे पढ़ लेती हो
कितनी अलाओं बलाओं से
मुझ को रोज बचाती हो ’’ अतिसुन्दर। तहेदिल से बधाई स्वीकारें। सादर,

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