बेख़ौफ़ हो गए हैं ,बेदर्द हो गए हैं ,
हवस के जूनून में मदहोश हो गए हैं .
चल निकले अपना चैनल ,हिट हो ले वेबसाईट ,
अख़बारों के अड्डे ही ये अश्लील हो गए हैं .
पीते हैं मेल करके ,देखें ब्लू हैं फ़िल्में ,
नारी का जिस्म दारू के अब दौर हो गए हैं .
गम करते हों गलत ये ,चाहे मनाये जलसे ,
दर्द-ओ-ख़ुशी औरतों के सिर ही हो गए हैं .
उतरें हैं रैम्प पर ये बेधड़क खोल तन को ,
कुकर्म इनके मासूमों के गले हो गए हैं .
आती न शरम इनको मर्दानगी पे अपनी ,
रखवाले की जगह गारतगर हो गए हैं .
आये कभी है पूनम ,छाये कभी सनी है ,
इनके शरीर नोटों की अब रेल हो गए हैं .
कानून की नरमी ही आज़ादी बनी इनकी ,
दरिंदगी को खुले ये माहौल हो गए हैं .
मासूम को तडपालो ,विरोध को दबा लो ,
जो जी में आये करने में ये सफल हो गए हैं .
औरत हो या मरद हो ,झुठला न सके इसको ,
दोनों ही ऐसे जुर्मों की ज़मीन हो गए हैं .
इंसानियत है फिरती अब अपना मुहं छिपाकर ,
परदे शरम के सारे तार-तार हो गए हैं .
''शालिनी'' क्या बताये अंजाम वहशतों का ,
बेबस हों रहनुमा भी अब मौन हो गए हैं .
[मौलिक व् अप्रकाशित ]
शालिनी कौशिक
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