चांद सितारे
चुप से हैं।
रात
घनेरी छाई है।।
तेज घनी
दुपहरिया में
अब अंगार बरसते हैं।
तपती
बंजर धरती पर
पांव धरें
तो जलते हैं।
पेड़ की
टूटी शाख पर
इक कोंपल
मुरझाई है।।
चिटक गयीं
दीवारे भी
छत से
बूंद टपकती है।
जमीं
सहेजी थी मैंने
मुझसे
दूर खिसकती है।
नयनों की
परतें सूखी
दिल में
सीलन छाई है।।
देखो
अब आशाओं के
पंख झड़े
तन सूख गए।
कितने कितने
सपनों के
श्वास से
संग छूट गए।
बस
टूटा बिखरा सा ये
जीवन
इक भरपाई है।।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाषित)
Comment
यही सबसे अच्छी परिणति है कि अभ्यास और प्रयास बना रहे.
आपको इस नवगीत विधा पर हुई एक अच्छी प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई.
अज्ञेय का एक वाक्यांश है - दुःख सबको माँजता है. मैं समझता हूँ यह माँजना तो बहुत बाद की चीज़ है. पहली चीज़ तो ये है कि दुःख सबको बाँधता है. इसी कारण कवि हृदय कातर हुआ शब्दबद्ध होता है.
भाई बृजेशजी, आपके कवि की जो मनोदशा है वह दशा एक तरह से हर नये लिखने वाले की वह मनोदशा है जिससे उसे एक दफ़े अवश्य गुजरना ही गुजरना होता है. आगे चलकर उसका अनुभव, संप्रेषण में आती जाती सहजता से उपजा आत्मवश्वास उसे इन प्राकृतिक भावनाओं के पार दखने लायक बना देता है.
इसी को इंगित कर आदरणीया कल्पना रमानी जी ने कहा है कि निराशावादी दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए.
इस हिसाब से देखा जाय तो बच्चन की निशानिमंत्रण जिसमे सौ से अधिक भाव प्रस्तुतियाँ हैं दुःख और नैराश्य का पुलिंदा ही मानी जायेगी. जिसके बारे में यह भी प्रचलित है कि इसे शिद्दत से सुनते-पढ़ते और महसूस करते पाठकों में से तब के समय में एक-दो ने आत्म-हत्या भी कर ली थी. उन घटनाओं ने तो कहते हैं कि बच्चन तक को हिला कर रख दिया था.
हमने भी बहुत-बहुत पहले, जब तोतली जुबान में बोलना शुरु किया था और मात्राओं की गूढ़ता के सभी पहलुओं से परिचित नहीं हुआ था, कुछ इसी तरह के नैराश्य को यों शब्द दिये थे -
टीसता हरबार खालीपन मिलेगा
यार छोड़ो क्या सुनोगे दिल जलेगा
तीन मुट्ठी रात गिन कर
ले लिया दिन एक मुट्ठी
कुछ बने के फेर में जलती रही
गीली अँगीठी
है धुँआती आग बोलो क्या बनेगा !
यार छोड़ो क्या सुनोगे दिल जलेगा.. .
बृजेश भाईजी, आपका प्रस्तुत प्रयास सराहनीय और श्लाघनीय है. सुधी पाठकों से मिले सुझावों की छाया में आपकी समझ लगातार परिपक्व होती जायेगी, इसका पूरा भान है.
हाँ, यह अवश्य है कि मैं भी आदरणीया कल्पना रमानी जी की कही बातों को अब अपना स्वर देना चाहूँगा, कि, रचनाएँ दुःख के प्राकट्य की बाड़ को बाँधती और जीती अवश्य हैं लेकिन वे कवि को इसे लांघने का उपाय भी इंगित करती हैं जो कवि के अदम्य विश्वास और जीवन के प्रति लगाव का परिचायक हुआ करती हैं जो उसकी रचनाओं से यह उमगते दिखते हैं.
शुभ-शुभ
आदरणीय वीनस जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसन्द आयी मेरा श्रम सार्थक हुआ।
सादर!
आदरणीया कल्पना जी मैं कभी बुरा नहीं मानता। प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता है। दूसरे के विचारों को सुनने से एक नया नजरिया प्राप्त होता है। आपने जो सुझाव दिया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। आगे अपनी रचनाओं में इस बिन्दु को समाहित करने का प्रयास करूंगा।
दरअसल इस विधा को सीखने के क्रम में यह मेरा प्रथम प्रयास था। नवगीत के मापदण्डों में अपनी रचना को खरा उतारने की कोशिश में इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करना भूल ही गया।
आपका आभार इतना महत्वपूर्ण सुझाव देने हेतु।
मेरी रचना पर भविष्य में भी बेबाक टिप्पणियां करिएगा। मैं बुरा नहीं मानता। आप लोगों से सदैव सीखने को ही मिलता है।
अपना आशीष और स्नेह यूं ही बनाए रखिएगा।
सादर!
बृजेश जी
प्राकृतिक बिम्ब का यह रूप भा गया ...
शानदार नवगीत है
हार्दिक बधाई स्वीकारें
बृजेश जी, यही तो मैंने भी कहा, हमें शुरू से ही सकारात्मक लिखने की प्रेरणा मिली, रचना के अंत में कुछ उम्मीद भरी पंक्तियाँ जुड़तीं तो इतना सुंदर नवगीत और सुंदर हो जाता। आपका मन अति संवेदन शील है, शायद मेरी बात का बुरा नहीं माना होगा आपने...
टूटे बिखरे जीवन ने फिर से उम्मीद जगाई है।
आ0 बृजश नीरज भाई जी, अतिसुन्दर गीत हेतु तहेदिल से बधाई स्वीकारें, सादर,
आदरणीया कल्पना जी आपका आभार! निराशा में भी आशा की किरण छिपी होती है। घनी अंधेरी रात में भी सुबह की संभावनायें छिपी होती हैं।
आपका फिर से आभार!
सादर!
बहुत मार्मिक नवगीत है, बृजेश जी, लेकिन निराशावादी दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए...
सादर
आदरणीय निकोर जी आपका बहुत आभार!
राम भाई आपका बहुत बहुत आभार!
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