ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए ,
आदमी मजबूर है खुद को बदलने के लिए ।
सिर्फ कहने के लिए अँगरेज़ भारत से गए ,
अब भी है अंग्रेजियत हमको मसलने के लिए ।
हाथ में आका के देकर नोट की सौ गड्डियां ,
आ गये संसद में कुछ बन्दर उछलने के लिए ।
गुम गयीं बापू तेरी मूल्यों की सारी टोपियाँ,
और लाठी रह गयी सच को कुचलने के लिए ।
नित गिरावट के बनाए जा रहे हैं कीर्तिमान
सभ्यता की छातियों पर मूंग दलने के लिए ।
घर बुजुर्गों के बिना कितने वियाबां हो गए ,
अब नसीहत किस से पाएं हम संभलने के लिए ।
रात भर में फ़िक्र को उनकी न जाने क्या हुआ ,
सुब्ह हमसे आ मिले पाला बदलने के लिए ।
मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ ?
मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए ।
आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें ,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए ।
Comment
इस बेमिसाल गज़ल के लिए बहुत सी बधाई, अभिनव भाई।
सादर,
विजय निकोर
gazal ki jitni bhi taareef kee jaye..kam hi padegi
मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ ?
मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए
आदरणीय अभिनव अरुण जी बहुत ही पैनी कलम चलाई है. ढेरों शुभकामनायें .
घर बुजुर्गों के बिना कितने वियाबां हो गए ,
अब नसीहत किस से पाएं हम संभलने के लिए
मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ ?
मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए
अति सुंदर /हार्दिक बधाई
रात भर में फ़िक्र को उनकी न जाने क्या हुआ ,
सुब्ह हमसे आ मिले पाला बदलने के लिए ।
आपको हार्दिक बधाई
डॉ आशुतोष जी बहुत आभार आपका और साथ ही आबिद जी बहुत शुक्रिया आपका भी !!
आपकी इस बेहतरीन ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई ..वर्तमान परिदृश को खूबसूरती से एक एक कड़ी जोड़ते हुए माला गूथने का यह शानदार प्रयास
बहुत बहुत आभार आदरणीया वंदना जी !!
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