समन्दर में बसी मछली, समन्दर ढूढ़ती है क्यों ।
जो उसके हर तरफ फैला, उसे ना देखती है क्यों ।
वो सागर से पूछती है, बता तेरा पता है क्या ।
बताये कैसे ये सागर, बताने को भला है क्या ।
जहाँ पर वो वही सागर ,नही ये सोचती है क्यों ।
समन्दर में बसी मछली............................|
ना जाने कौन सा सागर, लिए बैठी ख़यालों में ।
वो लहरों में भटकती है, फसा करती है जालों में ।
वो पल पल जी रही जिसमे, उसी को भूलती है क्यों ।
समन्दर में बसी मछली................................ |
खुदा को खोजने वालों, अपनी भटकन जरा समझो ।
खोज सागर में सागर की, की ये पागलपन जरा समझो ।
खुद में खुद की ही खातिर भटकती ज़िन्दगी है क्यों ।
समन्दर में बसी मछली....................................|
नीरज
Comment
आदरणीय नीरज जी सुन्दर गीत रचा है, आपकी सुन्दर भावपूर्ण और शिल्पबद्ध रचनाएं मनमोहक लगती हैं. सादर बधाई स्वीकारें.
सुन्दर गीत बधाई
गीत का अन्तिम अंतरा अच्छा है। शुरूआत को और स्पष्ट करने की जरूरत है। इस प्रयास के लिए बधाई!
आ0 नीरज भाई जी, सुन्दर भाव । ’खुदा को खोजने वालों, अपनी भटकन जरा समझो ।
खोज सागर में सागर की, की ये पागलपन जरा समझो ।
खुद में खुद की ही खातिर भटकती ज़िन्दगी है क्यों ।।’ बधाई स्वीकारें। सादर,
बहुत बहुत शुक्रिया अभिनव साहब
श्री नीरज अच्छे भाव और सहज सन्देश वाली इस रचना के लिए हार्दिक बधाई आपको !!
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