बस इतनी थी
खता हमारी
कि थोड़ा
जीना चाहा
कॉफी के
हर घूंट में हमने
कितना कुछ
पीना चाहा
मगर बेहया
इन रातों को
इतना भी
मंजूर न था
पलट हंसा
सारे प्रश्नों को
जब उत्तर कुछ
दूर ना था
और छपे तब
कितने किस्से
चेहरे के
अखबार में
समझ चुका था
गहन दहन ही
मिलता इस
संसार में
बस इतनी थी
ख़ता हमारी
कि थोड़ा
खिलना चाहा
स्ट्रेचर पर
पड़े समय से
बिना झिझक
मिलना चाहा
(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राजेश जी सादर, सुन्दर भावपूर्ण रचना, सादर बधाई स्वीकारें.
बस इतनी थी
ख़ता हमारी
कि थोड़ा
खिलना चाहा
स्ट्रेचर पर
पड़े समय से
बिना झिझक
मिलना चाहा..........................इस सुन्दर कविता के लिए बधाई स्वीकारें आ.राजेश जी
सुंदर कविता है। बधाई आपको!
बस इतनी थी ख़ता हमारी
कि थोड़ा
खिलना चाहा स्ट्रेचर पर
पड़े समय से
बिना झिझक मिलना चाहा -मन के भाव बड़ी सुन्दरता से उकेरे है | हार्दिक बधाई श्री राजेश कुमार झा साहिब
वाह राजेश जी कविता अच्छी लगी बधाई आपक्को !
Khoob hai Rajesh Kumar Jha ji
बहुत अच्छी रचना है बन्धु भाव पक्ष प्रबल है
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