ग्रीष्म शुष्क लागत बदन, जागत तन में पीर.
मनुज, पशु, खगवृन्द सभी, खोजत शीतल नीर.
अरुण अनल अति उग्र हैं, तपस लगत चहुओर.
श्वेद बूँद भींगे बदन, अगन लगे अति घोर.
पल-पल बिजली जात हैं, बिजली घर में शोर.
दूरभाष की घंटिका, बजन लगे घनघोर.
कोकिल कूके आम्र तरु, शीतल पवन न शोर.
वृन्द खगन के देखि के, नाचत मन में मोर.
वरुण,इंद्र, विनती सुनौ, बरस घटा घनघोर.
उमरि घुमरि मेघन परखी, नाचत वन में मोर.
मेघ घिरे नभ में सघन, कड़के बिजुरी घोर.
प्रियजन आहु, निरखु घटा, तृण छायो चहुओर.
मौलिक व अप्रकाशित
--जवाहर
Comment
आदरणीय जवाहर जी भाई सादर, दोहों पर सुन्दर प्रयास हुआ है. सादर बधाई स्वीकारें. आदरणीया डॉ. प्राची जी की बात से मैं भी सहमत हूँ."उमरि घुमरि मेघन परखी,"= १४ मात्राएँ हैं.
आदरणीय जवाहर जी बहुत ही सुन्दर! आपको मेरी ढेरों बधाई!
एक दो जगह मात्रायें अधिक हैं शायद। उन्हें देख लें।
सादर!
आपका छंद प्रयास आश्वस्त करता है भाई जवहर जी.. .
तृण छायो चहुओर .. .. इसका क्या अर्थ ?
आदरणीया कुंती जी, सादर अभिवादन !
आदरणीया डॉ. प्राची जी, सादर अभिवादन !
जवाहर जी , अच्छी रचना है जो इस भीषण गरमी का सुंदर वर्णन है./
सादर
कुंती .
दोहावली प्रस्तुतीकरण के लिए बधाई आ० जवाहर लाल सिंह जी
आँचलिक/देशज शब्दों को दोहावली में बहुत ज्यादा प्रयुक्त किया गया है.. जो मुझे कुछ असहज व आरोपित सा लगा. इनके बिना भी कथ्य बहुत स्पष्टता से अभिव्यक्त हो सकता था.
सादर.
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