बह्रे मुज़ारे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक़्बूज़ मख़्बून महज़ूफ़ो मक़्तुअ
1212/ 1122/ 1212/ 22
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हमें अज़ीज़ मुजद्दिद की राह हो जाए;
नज़र में शैख़ की गर हो गुनाह हो जाए; ॥1॥
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मेरे कलाम पे उनको यक़ीन था इतना,
ज़बाँ तराश के बोले सलाह हो जाए; ॥2॥
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मेरे ख़ुदा तू सदाक़त नवाज़ यूँ मुझको,
जो मुद्दई हो मेरा ख़ैरख़ाह हो जाए; ॥3॥
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कभी तो ज़ीस्त में अपनी भी पल वो आए जब,
तेरे करम का मेरा दिल गवाह हो जाए; ॥4॥
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ज़िया ज़रूरी है आलम ये देखने को मगर,
सितारे देखिये जब शब सियाह हो जाए; ॥5॥
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रवायतों से ही शाइस्तगी मिले लेकिन,
हुए हैं ग़र्बी तो कैसे निबाह हो जाए; ॥6॥
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मना नहीं है रखो मेल-जोल सबसे मगर,
ज़रा हमारी तरफ़ भी निगाह हो जाए; ॥7॥
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न वह्ब चाहिए इसके सिवा मुझे कोई,
सग़ीरो ख़ास के दिल में पनाह हो जाए; ॥8॥
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सुख़नसरा नहीं ग़ालिब या मीर सा वाहिद,
ख़ुदा का फ़ज़्ल ग़ज़ल गाह-गाह हो जाए; ॥9॥
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वाहिद काशीवासी
{16052013}
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मुजद्दिद=इस्लाम धर्म का सुधारक; सदाक़त=सत्यनिष्ठता; ख़ैरख़ाह=शुभचिंतक; ज़िया=प्रकाश; शाइस्तगी=संस्कार; ग़र्बी=पाश्चात्य; वह्ब=पुरस्कार; सग़ीरो ख़ास= आम एवं विशिष्ट जन; सुख़नसरा=तरन्नुम में शे'र कहने वाला; गाह-गाह=यदा-कदा;
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अग्रज अरुण जी,
आपसे तो बहुत कुछ सीखने को मिला है! विनम्रता जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है! :-) बस फ़ज़्ल ही है ख़ुदा का जो ग़ज़ल हो गई! कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ! सादर,
आद. डॉ. साहिब,
आपने सराहा, उत्साहवर्धन किया हार्दिक आभारी हूँ!
नमस्कार वाहिद जी .
बेहद गंभीर गज़ल .. कई बार पढ़ा .. बधाई स्वीकार करें
वाह संदीप भाई बहुत सुन्दर लाजवाब ...बधाई स्वीकार करें
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
वाह वाह वाह संदीप भाई लाजवाब
एक एक अशआर ग़ज़ब का हुआ हर अशआर पर ढेरों दाद हाजिर हैं
ख़ास इस शेर पर
मेरे ख़ुदा तू सदाक़त नवाज़ यूँ मुझको,
जो मुद्दई हो मेरा ख़ैरख़ाह हो जाए; ॥3॥ वाह वाह साहब वाह लाजवाब
सुख़नसरा नहीं ग़ालिब या मीर सा वाहिद,
ख़ुदा का फ़ज़्ल ग़ज़ल गाह-गाह हो जाए; ॥
हो गयी , हो गयी ..कमाल की ग़ज़ल श्री वाहिद जी बहुत बहुत बधाई हर शेर जिंदाबाद तराशा हुआ नगीने सा !!!
बहुत उम्दा ग़ज़ल काही है संदीप भाई। पूरी पकी हुई ग़ज़ल। हर एक शेर मशाल्लाह बहुत खूब सूरत ! दिली दाद कुबूल करें!
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