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ज़र्द दस्तावेज़

     

जिन्हें जन्म दिया

पाला-पोसा बड़ा किया

उन्हीं जिगर के टुकड़ों ने

माँ –बाप को घर से निकाल दिया

 

संगम पर मिली मुझे इक बेबस माँ

वो मेरे साथ होली

इक रोटी मांगी और बोली

“ मैं अनपढ़ हूँ भिखारिन नहीं हूँ ,

 पिछले बरस मेरा बेटा मुझको यहाँ छोड़ गया है ,

 तबसे उसका इंतज़ार करती हूँ ,

 हर आने जाने वाले से रोटी मांगकर ,

 उसका पता पूछती हूँ ”

 

हाय ! वृद्धा माँ से छुटकारा पाने के लिए

बेटा माँ को यहाँ छोड़ गया

ये सोच कलेजा मुहँ को आ गया

हृदयविदारक परन्तु सत्य है

अदृश्य सरस्वती की ही तरह यहाँ

एक लुप्त आंसुओं की नदी बहती है

जो ऐसे ही बेबस माँ-बाप की व्यथा कहती है

कहीं मकान के लालच का होना

कहीं पत्नी से तालमेल ना बिठा पाना

किसी ने बनाया तीर्थ यात्रा का बहाना

किसी का बुढ़ापे को ढोने से इंकार करना

यूँ माँ-बाप को था घर से बाहर निकलना

 

इन सच्चाइयों से तनिक रूबरू होना ......

झाड़ने पर भी इन सूनी आँखों में

आंसू ठिठक जाते हैं

आँखों की पोर पोंछते पोंछते

धोती की कोर भीग जाती हैं

सबके अतीत और वर्तमान में

पैबंद है दुखों की सरिता का

दर्द के ये ज़र्द दस्तावेज़

हर जगह बिखरे मिलते हैं

भोर से टकटकी लगाये इनके नैन

शाम होते होते दम तोड़ देते हैं

जो भी हो... दिल तो इनके फिर भी

जिगर के टुकड़ों को दुआ देते हैं

 

विजयाश्री

२५.०४.२०१३

 

( मौलिक और अप्रकाशित )

 

  

 

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Comment by विजय मिश्र on June 17, 2013 at 12:28pm
क्षमा करेंगी विजयाश्री जी , मैंने भूलवश ' विजयश्री ' पढ़ा और ' मित्र !' का सम्बोधन किया . बहुत ही भाव भरी रचना है .एकबार और साधुवाद .
Comment by विजय मिश्र on June 17, 2013 at 12:22pm
यह आजके प्रगतिशील मानवीयता का एक छोटा रूप है जो ममत्व और पितृत्व की होती नृशंस हत्याओं का मात्र दृष्टान्त है , आज की अधुनातन संस्कृति में तो इसके अतिबीभत्स और महाघृणित हजारों रूप प्रकारांतर से परिलक्षित होते हैं . भौतिक जड़वाद निरंतर चैतन्यता को लील रही है .मूक और विबश मन रोने को बाध्य है ,कर भी क्या सकता है ? मित्र ! एक यथार्थबोधी रचना हेतु साधुवाद .
Comment by vijayashree on June 15, 2013 at 5:48pm

हार्दिक आभार

 

राम शिरोमणि पाठकजी

शालिनी रस्तोगीजी

Comment by shalini rastogi on June 14, 2013 at 10:27pm

सबके अतीत और वर्तमान में

पैबंद है दुखों की सरिता का

दर्द के ये ज़र्द दस्तावेज़

हर जगह बिखरे मिलते हैं

.. मर्मस्पर्शी रचना ... पता नहीं कितने वृद्ध माता पिता अपनी संतान की उपेक्षा से त्रस्त जीवन को शाप की तरह ढो रहे हैं .. बहुत बारीकी से उकेरा है आपने इस दर्द को ..

Comment by ram shiromani pathak on June 14, 2013 at 9:50pm

waah waah adarneeya bahut sundar///hardik badhai

Comment by vijayashree on June 14, 2013 at 8:42pm

हार्दिक आभार ....

 

बसंत नेमाजी

सुमित नैथानीजी

श्याम नारायण वर्माजी

आबिद अली मंसूरीजी

केवल प्रसादजी

प्रज्ञा श्रीवास्तवजी  

Comment by Pragya Srivastava on June 14, 2013 at 8:32pm

भावपूर्ण रचना -------बधाई

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 14, 2013 at 7:33pm

आ0 विजयाश्री जी,  कपूतों की धज्जियां उड़ाती सुन्दर रचना। बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by Abid ali mansoori on June 14, 2013 at 4:07pm
दिल को छूती रचना,बधाई आपको!
Comment by Shyam Narain Verma on June 14, 2013 at 3:08pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ...............

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