!!! घर की मुर्गी दाल बराबर !!!
कालिमा की घोर नाशक आभा दबे पांव क्षितिज मे अपना आधिपत्य जमाने को उतावली हो रही थी और इधर नित्य क्रिया के फलस्वरूप मुर्गे ने कुकड़ू कूं.............. कुकड़ू कूं........बांग के साथ ही जीवनमय युध्द का बिगुल फूंक दिया। सृष्टि में एक विस्मयकारी, मुग्धकारी और मनोहारी दृश्यों का सजीव प्रस्तुति प्रसारित होने लगा। मुर्गा किशोरवय था। शिकार का हर दांव-पेंच बहुत ही बारीकी से समझता था। इसीलिए आज भी उलझे हुए मांझे के साथ शिकार करने हेतु अभ्यासरत था। बंटी मुर्गे के पास बैठकर उसके अचूक और कलाबाजी पूर्ण अभ्यास को ध्यानमग्न होकर देख रहा था। सहसा उसकी मम्मी की आवाज गूंजी.....बेटा! मंजन जल्दी कर लो.....स्कूल जाना है। अचानक मम्मी जी का मोबाईल बज उठा.......प्रभु जी मेरी लाज रखना..........! हैलो.....कहते ही मम्मी जी हर्ष से चीख पड़ी।......अजी सुनते हो!......लखनऊ मेल से बन्टी के मामा जी आ रहें हैं। ...कौन? पापा ने पूछा। दिल्ली वाले.......मम्मी ने उत्तर दिया। पापा जी बोले...अरे! सीधे क्यों नहीं कहती हो कि तुम्हारा भाई और मेरा साला.....अभी पापा जी पूरी बात भी नहीं कह पाये कि मम्मी जी पुनः बोली- हां हां बातें मत बनाओं। गैराज से कार निकालो और सीधे रेलवे स्टेशन जाओ। इतना सुनते ही मुर्गा अपना अभ्यास भूल गया और खड़बड़ा कर जमींन पर धड़ाम से गिर पड़ा। वह सशंकित था। तत्काल पंख झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और सीधे मुर्गी के पास जाकर संशय पूर्ण पूछा- मां क्या ये वही मामा जी हैं? जिन्होने पिछली होली में मुझे अनाथ और आपको विधवा बनाया था। हां! मेरे बच्चे! यह वही मुर्दाखोर आदम है...। कहकर मुर्गी की आखों से अश्रु धारा बह निकली। मुर्गा डर से सहम गया, उसका शरीर कंपकपाने लगा। वह फड़फड़ा कर इधर-उधर उड़ने का प्रयास करने लगा लेकिन वह बार-बार नीम के पेड़ से गिर पड़ता था।...फिर भी वह लगातार उड़ रहा था।
रोको-रोको....। की आवाज के साथ घर के द्वार पर एक आटो आकर रूकी। मामा जी...मामा जी...। मम्मी......! मामा जी आ गए..। चिल्लाकर बंटी मामा जी के गोद में चढ़ गया। मामा जी ने बंटी से पूछा बेटा तुम्हारा चूजा तो अब बड़ा हो गया होगा? बंटी ने बड़ी सहजता और प्रसन्नता से कहा हां! मामा जी! वह पहले वाले मुर्गे से भी बहुत बड़ा हो गया है। वह मेरे साथ खेलता भी है।
दोपहर के भोजन में मामा जी को थाली में मुर्गा नहीं मिला तो उन्होंने बेझिझक पूंछ ही लिया- अरे जीजा जी! इस बार मुर्गा नहीं खिलाओगे? हां भई क्यों नहीं। अतिथि तो भगवान होता है। उसकी हर प्रकार से सेवा करनी चाहिए। फिर क्या था शाम को मुर्गे की खोज होने लगी लेकिन अथक प्रयास के बाद भी मुर्गा नहीं मिला। अन्त में बंटी के पापा ने कहा- अमां साले साहब मुर्गा तो मिला नहीं लगता है कि आप से पहले उसे बिल्ली ही चट कर गयी। अगर आपकी इजाजत हो तो आज यह मुर्गी ही हलाल करें। नहीं...नहीं। बंटी रोने लगा। इस मुर्गी को मत मारों। मैं रोज अण्डे कैसे खाऊंगा? मामा जी ने बड़े ही अनमने मन से कहा- अरे छोड़ो...। जीजा जी- घर की मुर्गी दाल बराबर। आज दाल ही खा लेंगे। पापा जी तपाक से बोले- जैसे प्रभु की इच्छा।
मामा जी दो दिन लखनऊ में सरकारी कार्यो में व्यस्त रहे। आज मामा जी वापस दिल्ली जाते वक्त बोले जीजा जी आपके लखनऊ की सब्जियां भी बड़ी लजीज हैं। मैंने तो कभी इनके स्वाद को चखा ही नहीं। वाह...वाह..। लौकी के कोपते, तरोई व भिन्डी की भुजिया, कटहल-कद्दू, गोभी-मटर तो बेटर है ही। अब से मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है। अब मैं मुर्गा नहीं केवल सब्जियां की खाना पसन्द करूंगा। मामा जी तो दिल्ली जा चुके थे।
अगले दिन भोर तड़के ही एकाएक मुर्गे की बांग.......कुकड़ू कूं ....की आवाज सुनकर बंटी के पापा जाग गये। देखा तो मुर्गा जल्दी-जल्दी दाने चुंग रहा था क्योंकि वह पिछले दो दिनों से भूखा और मौन व्रत था। मुर्गे की बांग से बंटी भी आज जल्दी उठकर बाहर आ गया और मुर्गे को देखते ही बंटी ने उसे झट से उठाकर गले से लगा लिया और खुशी से झूमने लगा। यह देखकर उसके मम्मी-पापा दोनों के ही आंखों में आंसू भर आए।
!!!! इति शुभम् !!!!
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह !केवल जी , क्या व्यंग्य मारा है.......और तो और साले साहब को बड़े सस्ते में शाकहारी भी बना दिया ...हींग लगे न फिटकीरी रंग चोखा होई. /सादर / कुन्ती .
आदरणीय सच में मुर्गा और अन्य जीव ऐसा ही सोचते होंगे जब उनके साथ अत्याचार होता है , मांसाहार पर चोट करती आपकी एक अच्छी प्रस्तुति ।
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