कभी हम यूँ भी अकेले होंगे ,
भीड़ होगी ,तन्हाई के मेले होंगे ,
याद आएगा एक वह आँगन
जिसमे हम मौज से खेले होंगे !
*
आंधियां,तूफ़ान हों ,ये चाहते हैं हम,
दुश्वारियों को खूब ही सराहते हैं हम ,
हम तो चलेंगे रोज की रफ़्तार से यारो,
दूर है मंजिल तो क्या निबाहते हैं हम !
*
ज़िंदगी किताब सी ,आइये पढ़ें ,
लिखी बे-हिसाब सी ,आइये पढ़ें ,
पाठ सारे सवालों के हैं फिर भी
लगती जवाब सी ,आइये पढ़ें !
*
पढ़ लीजिए चेहरों को ज़रा देख-भाल कर ,
वंदन -प्रशस्ति कर रहे कीचड़ उछालकर ,
क्या खूब ये नुमाइंदे ,क्या खूब इनके ढंग
हमने जिन्हें चुना था बहुत ही सम्हाल कर !
*
राजनीति तेरे क्या खूब हैं नज़ारे ,
आज मुंह फेर चले ,कल थे हमारे ,
बात नही मानी ,तो हम चले जानी
उगा नया सूरज प्रणाम करो प्यारे !
________________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
ज़िंदगी किताब सी ,आइये पढ़ें ,
लिखी बे-हिसाब सी ,आइये पढ़ें ,
पाठ सारे सवालों के हैं फिर भी
लगती जवाब सी ,आइये पढ़ें !........बहुत सुंदर /सादर / कुंती
मुक्तक
आदरणीय विश्वम्भर शुक्ल जी मुक्त छन्द सामायिक हैं अच्छे लगे. बधाई
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