छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास .....
वक्त जो हम पर भारी है
अपनी भी तय्यारी है
पूरा कारोबारी है
ये अमला सरकारी है
.
प्रजातंत्र के ढांचे में
हर कोई दरबारी है
तय्यारी है हमलों की
अम्न का नाटक ज़ारी है
सच को कैसे सच कह दें
जान हमें भी प्यारी है
खुद को खतरा है खुद से
ये कैसी खुद्दारी है
साम्यवाद के नारों पर
भारी जिम्मेदारी है
वीनस केसरी
मौलिक व अप्रकाशित
फैलुन फैलुन फैलुन फ़ा
Comment
जितेन्द्र जी इस हौसला अफजाई के लिए शुक्रगुज़ार हूँ
कल्पना रामानी जी आपका ह्रदय तल से आभारी हूँ ...
टंकण त्रुटि कि ओर ध्यान दिलाने लिए लिए पुनः आभार
सार
इस छोटी बह्र की ग़ज़ल का अंदाज़ बहुत बड़ा है. हर शेर पर दाद है.
अहहा! किस सुंदरता से बधिया उधेड़ी है आपने वर्तमान परिस्थितियों की। बहुत सुन्दर! मेरी बधाई स्वीकारें!
Waah Venus bhai bahut khoob.....bahut umda ghazal hui hai. daad kubool karein !
aadaniya guruji..pranam
jandar gazal ke liye badhai sweekaren...ek vidhyarthi ke roop main nivedan hai ki is gazal ki takteea karne ka kasht karenge..jisse mujh jaise anaadi vidhyarthi ko iski bahar samajhne main aasaani ho...
sadar
प्रजातंत्र के ढांचे में
हर कोई दरबारी है
आपकी रचनाये जलती हुई आग जैसी होती है !
जो दिल पर असर करती है !
आ0 वीनस भाई जी, वाह! क्या कहने...!
‘खुद को खतरा है खुद से
ये कैसी खुद्दारी है
साम्यवाद के नारों पर
भारी जिम्मेदारी है ‘...बहुत ही उम्मदा। ढेरों दाद कुबूल करें। सादर,
खुद को खतरा है खुद से,
इस पंक्ति से हमारी सच्चाई हमें ज्ञात हो रही है
साथ ही इंसान कितना कमजोर हैं
समझ में आ रहा है !
बहुत खूब !!!
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