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फुटकर दोहे ....
** *** *** **

आज पुरस्कृत हो रहे ,प्राय: वो पाखण्ड।

जिन  देहों  से लुप्त हैं ,उनके  मेरुदण्ड।।
--
झांसा जग को दे रहे, कर ऊर्जा का ह़ास।
सरल राह पर जो चले,सुखद मिले अहसास 
--
छद्म एकता का सदा ,रचते हम पाखण्ड।
क्यूँ हम जग को तोड़ते,आओ रहे अखण्ड।।
--
नाम धर्म का हो रहा ,पकता खूब अधर्म।
भोली जनता नासमझ,नहीं जानती मर्म।।
--
कहते जिसे क्रिकेट हैं, भोग रहा है दण्ड।
भद्र जनों का खेल था,अब नीरा पाखण्ड।।
------------------------------------------------
अविनाश बागडे  
(संपादक महोदय ,.मेरी यह रचना पूर्णत:अप्रकाशित ,अप्रसारित और मौलिक है ,)

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Comment by aman kumar on June 25, 2013 at 1:06pm

भद्र जनों का खेल था,अब नीरा पाखण्ड।।

सच कहा आपने ........

Comment by Savitri Rathore on June 24, 2013 at 7:14pm

बाहरी आडम्बर और पाखंड को उजागर करती सुन्दर रचना ..........अच्छा प्रयास !

Comment by बृजेश नीरज on June 24, 2013 at 6:11pm

इस सुन्दर प्रयास पर मेरी बधाई स्वीकारें!

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 24, 2013 at 11:43am

वाह आदरणीय वाह पाखण्ड को उजागर करती अत्यंत सुन्दर दोहावली, एक एक दोहा पाखण्ड को परिभाषित कर रहा है इस सुन्दर दोहावली पर हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by Shyam Narain Verma on June 22, 2013 at 12:55pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

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