मैं नदी –
पहाड़ों से उतरी,
उन्मुक्त बहती
कल कल करती मतवाली
मैं नदी -
गाँव खलिहानों से होती
बच्चों की किलकारियों सी,
खेतों में ठुमकती
मैं नदी -
सरदी की धूप,
षोडसी की चोटी सम लम्बी
लहराती इठलाती बलखाती
मैं नदी जो कभी थी.
2
समय का बदलता रूप -
हाइटेक का ज़माना,
तरक्की की चरमसीमा,
बलिदान स्वरूपा
मैं नदी अधुना.
झुलसती गरमी
बीच शहर,
कूड़े का ढेर
अछूत सी पड़ी,
मैं नदी अधुना.
सीवर का पानी
रगों में बहता,
मुँह मारता श्वान,
मैं नदी अधुना.
नाना रोगों से ग्रस्त,
केंसर का मरीज,
पुल के नीचे ठहरी,
मैं नदी अधुना.
ध्यान लगाती,
आत्मा को टटोलती,
सागर मिलन को तरसती,
मैं नदी अधुना.
3
मेरा भविष्य -
कौन नदी ? कैसी नदी ?
विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में
प्रश्नचिह्न अनेक ? ? ?
कविता की किताबों में
लिखी मेरी हसीन गाथा,
सरकारी दस्तावेज़ों में
मेरा धुंधला अस्तित्व !
आने वाली पीढ़ी
धरती खंगालेगी,
नाले के पानी पर
लम्बी चौड़ी रिपोर्ट लिखेगी
मैं नदी, यही मेरा भविष्य !
4
परिणाम –
इस अवहेलना का
प्रतिकार कर जाऊँगी,
मिटते मिटते
मानव सभ्यता को
मिटने का
पुरस्कार देती जाऊँगी.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
नदी की व्यथा! क्या नही का अतीत था अपार जल राशी जिसे देखते ही नत होने का मन होता था और आज नालों में तब्दील हो रही है और इस सब के मूल में केवल मानव सभ्यता!
चेतनामयी अभिव्यक्ति पर बधाई!!
नदी की विभिन्न दशा हमारे सभ्यता के हर काल की कहानी सुना रही हैं ... हम क्या थे अब क्या हो गए है???? और शायद इस शाप के भागी भी हैं ..सादर ..बहुत ही चिंतनीय अभिवयक्ति ..
सौरभ जी , आपका मार्दर्शन हमें लिखने और पढ़ने की प्रेरणा देती है. अन्यथा हम झूठे दंभ में भूले रहते हैं कि दो शब्दों को जोड़ लिया और कविता बन गयी .आपका हार्दिक आभार.
आपकी सलाह हमें सदा मान्य है.आभार.
आदरणीया आपके कथन ने मर्म को स्पर्श कर लिया, आपने नदियों की पीड़ा को शब्द के साथ साथ आवाज भी दे दी है, हार्दिक बधाई स्वीकारें
आदरणीय कुंती जी विभिन्न कालों में बंटी नदी की यह व्यथा आपने भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की है। इस प्रयास के लिए आपको ढेरों बधाई।
रचना को शिल्प के स्तर पर एक बार फिर जांच लें। कुछ संशोधनों बाद यह और निखर आएगी।
सादर!
कुंती जी आपने नदी के विभिन्न रूपों का जो चित्रण किया है ......उसकी पीड़ा को जो स्वर दिया है,निस्संदेह वह प्रशंसनीय है .......आपकी ये रचना हमारे अंतस को झकझोरती है और हमें भविष्य की आपदाओं के प्रति सचेत करती है ,यदि हम विकास के पर प्रकृति के साथ मनमानी करने से बाज नहीं आयें तो हमें तथा भावी पीढ़ियों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। बधाई हो !
यह कितनी बड़ी विडंबना है, जब तक हम ’तथाकथित’ अशिक्षित थे नदियाँ हमारे लिये माँ थी. नदियाँ ही क्यों प्रकृति के सभी अवयवों से अपना साहचर्य का नाता था. हम सुखद सहवास में रहा करते थे.
आज जिस ’शिक्षा’ से अनुप्राणित हुए हैं, हमारे विचारों में प्रयोक्ता का दानवी भाव आ गया है ? हम साहचर्य के उन्नत और उत्सर्गी भाव भूल स्वयं को हरकुछ पर बलात् आरोपित करते हैं. हम ऐसे शिक्षित हुए कि नदियों के प्रति हमारे भाव बदल गये हैं. हमारे लिए ये नदियाँ ’गार्बेज डक्ट’ बन कर रह गयीं हैं.
आदरणीया कुन्ती जी, आपकी इन क्षणिकाओं के लिए आपको सादर धन्यवाद.
यह अवश्य है कि शिल्प के तौर पर संप्रेषणीयता के लिहाज से कुछ और गठन की आवश्यकता है.
सादर
विजय जी , आपका बहुत बहुत धन्यवाद. सादर / कुंती.
अमन जी , यह बात आपने सही कहा है , नदियों की जितनी दुर्दशा मैंने भारत में देखी है अन्य किसी भी देश में ऐसा नहीं होता है. अक्सर लोग अपने घर की गंदगी नदी में डाल देते हैं. जो कुछ मैंने अपनी रचना में लिखी है यह लखनऊ की नदी की आत्मकथा है.सादर./कुंती
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