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शहर के बड़े चैराहे पर

जो बड़ी दीवार है

उसके पास से गुजरते हुए

अक्सर मन होता है

लिख दूं उस पर

‘लोकतंत्र’

लाल स्याही से।

 

एक बड़ा लाल चमकता हुआ

‘लोकतंत्र’

जो दूर से साफ चमके।

 

जब भी होता हूं वहां

कांव कांव करता एक कौआ

आ बैठता है दीवार पर

मानो आहवाहन करता हो

‘आंव, आंव

लिख दो इस दीवार पर

जग जाएं पशु, पक्षी, लोग

ढूंढकर निकाली जा सके

फाइलों और योजनाओं के

बोझ तले दबी जनता’।

 

कभी कभी हाथ उठते भी हैं

लेकिन कायर दिमाग

अनुमति नहीं देता।

 

दिमाग याद करता है

जब एक कवि ने

कोशिश की थी पहले

‘लोकतंत्र’ लिखने की

इसी दीवार पर।

अभी लिख ही पाया था ‘ल’

कि मिटा दी गयी इबारत

पोत दी गयी दीवार

झक सफेद रंग से।

वह कवि

तब से गायब है।

           - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on July 5, 2013 at 5:29pm

आदरणीय केवल भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 5, 2013 at 5:28pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! रचना को आपका अनुमोदन मेरे प्रयास को सार्थकता प्रदान करता है।
सादर!

Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 1:15pm

//

अभी लिख ही पाया था ‘ल’

कि मिटा दी गयी इबारत

पोत दी गयी दीवार

झक सफेद रंग से।

वह कवि

तब से गायब है।//

 

समसामयिक ...   भावों को बहुत अच्छा स्पष्ट किया है, आदरणीय बृजेश जी।

सादर,

विजय निकोर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 5, 2013 at 11:45am
आदरणीय..ब्रजेश जी, कितने सुंदर भाव से अपनी रचना के द्वारा, आपने सीधी चोट मार दी हुकुमत के अमले पर....बहुत खूब आदरणीय...""दिमाग याद करता है

जब एक कवि ने

कोशिशकी थी पहले

‘लोकतंत्र’ लिखने की

इसी दीवार पर।

अभी लिख ही पाया था ‘ल’

कि मिटा दी गयी इबारत

पोत दी गयी दीवार

झक सफेदरंग से।"".....इन पंक्तियों में बड़ी ही खूबसूरती से आपने यह जाहिर किया कि 'लोकतंञ' मतलब करोड़ो लोगों के तंञ में इक इन्सान कितना मजबूर होता है, जो सबकुछ जानकर भी कुछ नहीं कर पाता......!आदरणीय...आवश्यक विषय पर सुंदर रचना प्रस्तुति पर दिल से बधाई व शुभकामनाऐं स्वीकार कीजीऐ
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 5, 2013 at 11:25am

बहुत सुन्दर मन के भाव उकेते है आपने बृजेश भाई इस रचना में सफलता पूर्वक, हार्दिक बधाई स्वीकारे 

नेता के अधिकार को, हथियाना है पाप |

लोकतंत्र की बात अब, क्यों करते है आप 

क्यों करते है आप,मन में है क्या विवशता 

जाना होगा जेल, रचना वही फिर  कविता 

कहते है कविराय, बिन बात पंगा लेता 

नींद करे हराम,  करे कुछ बनकर नेता |

Comment by बसंत नेमा on July 5, 2013 at 10:14am

अब शायद दिवारो पर लिख कर ही लोकतंत्र को महसूस किया जा सकता है /..................... बहुत सुन्दर रचना  आ0 ब्रजेश सर बहुत बहुत बधाई शुभकामनाये ... 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 5, 2013 at 9:58am

आ0 बृजेश भाई जी,
"कभी कभी हाथ उठते भी हैं
लेकिन कायर दिमाग
अनुमति नहीं देता।"---- सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। सादर,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 5, 2013 at 9:54am

बहुत सार्थक सशक्त रचना आ० बृजेश जी 

मन चाहता तो है बहुत कुछ बदल देना पर..पर विवशता.

आज की प्रशासनिक व्यस्था पर प्रहार करती  बहुत सुन्दर प्रस्तुति

हार्दिक बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 11:28pm

आदरणीय सानी जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 11:27pm

आदरणीया महिमा जी आपका आभार!

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