प्रकृति का नर्तन
(उत्तराखण्ड आपदा के संदर्भ में)
हमने भी देखा है,
माथे पर स्वर्ण-टीका लगाये
संध्या को,
शैल-शिखरों पर अभिसार करते हुए.
देवदार कुछ लजीले, कुछ शरमाए
चीड़ चंचल उत्पात करे,
मौन इशारे करते कुछ बहके -
देखा है रात ने,
भँवरे को कमल संग रमन करते हुए.
प्रातः मधुरस लिये भँवरा
गुँजन करता चमन चमन,
इस कान में कुछ स्वर
उस सुमन को देता कुछ मकरंद.
सौगात बाँटता वन उपवन
नवगीत गाता , कली खिलती -
पर, ठहरता ना कभी एक कुँज पर.
प्रकृति का दूत,
वसंत का अनुरागी,
होता मधुप हर पुष्प का अभिलाषी.
असावरी गाती कादम्बिनी,
भर आँचल मेह बरसाती,
हवा लेप लगाती उबटन चंदन की,
अरुणिमा पग पर सजाती महावर
सद्य:स्नाता वसुंधरा नव श्रृंगार कर -
मंद मंद मुस्काती आती मचलती
तब जड़ और चेतन हो उठते जीवंत.
नभचर जलचर क्रीड़ा करते नहीं अघाते
जीवन चक्र चलता रहता अपने क्रम में.
दिन ढलता फिर आती सांझ की बेला,
आलिंगन मनुहार करती निशा की,
कर जाती विश्राम जग की आँखों में.
पर धरती के भाग्य में इतना सुख कहाँ?
साँस लेने को तरसती, कभी
अपने दुःख से उफनती कहीं,
लिख दी विधाता ने छः रंगों से
ऋतुओं में मानव की नियति -
फेंक दी लेखनी सागर तल में
कर के शब्द भाषित नक्षत्रों में.
हवा पढ़ लेती गुप्त भाषाएँ,
सिखलाती रहस्य वन जीवों को -
सीखता इंसान भी
पर उसमें इतना सब्र कहाँ?
विज्ञान की तलवार खींच,
चुनौती देता रहता विधि को.
किसकी त्रुटि थी जो इतनी हुई,
प्रचंड कालिका,
किसने आह्वान किया इस तड़ित का,
शैलपुत्री और गंगा का.
तरना था या तारना था क्या पता!
जन्म कहाँ और मरण कहाँ?
नियति की विनाश क्रीड़ा में,
दो गज कफ़न भी नहीं मिला
उस कालव्यापी निशा में.
स्थिरप्रज्ञ हिमालय ने देखा प्रकृति नर्तन
और, प्रकृति के ही आँसू में
भागीरथ के संतान को तरते हुए.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
आदरणीय कुंती जी बहुत हि मार्मिक चित्रण आपदा का और एक चुनौती
अद्भुत शब्द बधाई स्वीकार करें
अदभुत .. शब्दों का अवगुंठन और भाव का प्रवाह ...बहा ले गया ..आदरणीया .. हार्दिक बधाई आपको
किसकी त्रुटि थी जो इतनी हुई,
प्रचंड कालिका,
किसने आह्वान किया इस तड़ित का,
शैलपुत्री और गंगा का.
तरना था या तारना था क्या पता!
जन्म कहाँ और मरण कहाँ?
नियति की विनाश क्रीड़ा में,
दो गज कफ़न भी नहीं मिला
उस कालव्यापी निशा में.--------ये तो विधाता ही जाने | पर एक बात अवश्य है, प्रकृति से खिलवाड़ का ही परिणाम है यह
सुन्दर भाव रचना के लिए बधाई आदरणीया कुंती मुखर्जी | सादर
किसकी त्रुटि थी जो इतनी हुई,
प्रचंड कालिका,
किसने आह्वान किया इस तड़ित का,
शैलपुत्री और गंगा का.
तरना था या तारना था क्या पता!
जन्म कहाँ और मरण कहाँ?
नियति की विनाश क्रीड़ा में,
दो गज कफ़न भी नहीं मिला
उस कालव्यापी निशा में.
आदरणीया कुंती जी बहुत सही फरमाया आप ने ये हमारी ही त्रुटि है जो आज हमारे सामने ये आपदा खडी है ..... बहुत सुन्दर भाव बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ... बधाई शुभकामनाये .........
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online