घास का इक नर्म
बिछौना बनाकर
ओढ़ कर नीले
गगन की सर्द चादर
सोया है कोई …
ओस बिखरी है जो
हरी हरी घास पर
साँस भर भर आई
हर साँस पर
रोया है कोई ….
कहीं पुरवाइयों में
ओस की रुलाइयों में
चूड़ियों सा चटका है
टूटा, मेरी कलाईयों में
बिखरा है कोई …
गर्म लहू जमा वह
या ठंडी बरसात है
कुहासे का झाग
या तो चीख की आग
भिगोया है कोई …
कत्थई निगाहें दौड़ी
कितने सफेद कोस
दर्द धूप में उड़ी,नर्म
आसुंओं की ओस
खोया है कोई ….
गीतिका 'वेदिका'
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अभिनव अरुण जी!
इतनी सुंदर प्रतिक्रिया और कोटि बधाईयों हेतु आपका बहुत बहुत आभार करती हूँ|
आभार आदरणीय अजय जी!
सादर !!
मधुर मधुर शब्द चित्र झरने सा प्रवाह लिए रचना के लिए कोटि कोटि बधाई और शुभकामनायें आदरणीया गीतिका जी
आदरणीया
सुंदर लेखन |
आभार आदरणीय जितेन्द्र 'जीत' जी!
आभार आदरणीय अशोक जी!
आदरणीया गीतिका वेदिका जी!
आदरणीया गीतिका जी सुन्दर रचना, सिर्फ लहू जमा.....वाले पद को छोड़ कर पूरी रचना सुन्दर है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी!
आपने रचना को इतना मान दिया!!
आदरणीया गीतिका जी क्या खूब लिखा है आपने तो
सार्थक कर दिया अपने नाम को ....
बस इतना ही कहूँगा
आपकी कविता पढ़ के खोया है कोई ।
आभार आ० आशीष सलिल जी!
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