बरखा रानी आ गई ,लेकर बदरा श्याम |
धरा आज है पी रही ,भर भर घट के जाम||
भर भर घट के जाम ,हो रही धरा है तृप्त |
पानी हुआ तुषार, हो रही ग्रीष्म है लुप्त ||
लोग हुए खुशहाल ,चला जीवन का चरखा |
बच्चे ख़ुशी मनात , मेघा ले आय बरखा ||
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० सरिता भाटिया जी..
सतत सजग प्रयास ही एक मात्र रास्ता है, रचनाकर्म को साधने का..
और छंदों पर आपका नव प्रयास बहुत सुखकर है..आपको ह्रदय से बधाई.
अब आपके कुंडलिया छंद पर :
कुंडलिया छंद एक दोहा और एक रोला छंद से मिल कर बनता है..तो दोहा व रोला दोनों ही छंदों का विधान आना आवश्यक है.
बरखा रानी आ गई ,लेकर बदरा श्याम |
धरा आज है पी रही ,भर भर घट के जाम|| ...दोहा भाग शिल्प की दृष्टि से तो सही है पर कथ्य और समय माँगता है
भर भर घट के जाम ,हो रही धरा है तृप्त |.......तृप्त से अंत नहीं कर सकते सम चरण का..यह तो २१ है रोला के विषम चरण का अंत सदैव २२, ११२, या ११११ से ही होन चाहिए.
पानी हुआ तुषार, हो रही ग्रीष्म है लुप्त ||... इसी प्रकार इस पंक्ति में भी लुप्त से चरणान्त नहीं कर सकते
लोग हुए खुशहाल ,चला जीवन का चरखा |
बच्चे ख़ुशी मनात , मेघा ले आय बरखा ||.........'मनात' इस तरह के शब्द प्रयुक्त करने से तब तक बचना चाहिए जब तक रचना किसी आंचलिक विशेष शैली में न हो, अन्यथा ये आरोपित से लगने लगते हैं और रचना की अंतर्धारा के साथ मेल नहीं खाते.
मेघा ले आय बरखा को ......मेघ ले आये बरखा करना ज्यादा सही होगा.
प्रयासरत रहें.. यकीनन बहुत जल्दी ही निर्दोष छंद कहने लगेंगी.
शुभकामनाएं
वर्षा ऋतु पर आधारित सुन्दर कुण्डलिया छंद रचा है आपने आदरणीया सरिता जी, आपका प्रयास रंग ला रहा है जमे रहें. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आदरणीया सरिता भाटिया जी,सुन्दर कुंडलियाँ//////हार्दिक बधाई
वर्षा ऋतू के महोहारी वर्णन के रूप में सुन्दर कुंडलियाँ छंद के लिए बधाई आदरणीया सरिता भाटिया जी
भाव पक्ष बढि़या है, साथ चलते रहें थोड़े बहुत कंकड़ पत्थर घर्षण बल से स्वत: ही चिकने हो जाएंगें, सादर
कभी कभी मात्रओं के चक्कर में मूल भाव गौण हो जाता है शब्द विन्यास दोषपूर्ण हो जाता है.
शुभेच्छु
कुंती
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