रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")
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बहर ----रमल मुसम्मन सालिम
रदीफ़ --हम देखते हैं
काफिया-- इयाँ
आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं
जश्ने हशमत या मुसल्सल पस्तियाँ हम देखते हैं
खो गए हैं ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में
गर्दिशों में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं
ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में डूबी फिजाएं
आज शाखों से लटकती बिजलियाँ हम देखते हैं
आबशारों का तरन्नुम गुम हुआ जाने कहाँ अब
तिश्नगी में फड़फडाती मछलियाँ हम देखते हैं
बह गए मिलकर सभी पुखराज गिर्दाबे अलम में
बस किनारों पर सिसकती सीपियाँ हम देखते हैं
आज होठों की तबस्सुम खो गई जाने कहाँ पर
सख्त चहरों पर सभी के तल्खियाँ हम देखते हैं
क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं
“राज” तेरे शह्र पर ये छा गई कैसी घटायें
हर कदम पे अब धुएं की चिमनियाँ हम देखते हैं
राजेश कुमारी "राज"
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
जश्न ए हशमत--- गौरव का उत्सव
पस्तियाँ--- पराजय
यास----- गम ,उदासी
तीरगी------ अँधेरे
आबशारों---- झरने
तिश्नगी----- प्यास
गिर्दाबे अलम------ गम के भंवर
तल्खियाँ----- उदासी ,चिंताएं
Comment
क्षमा प्रार्थी हूँ , राज बहन , मै राज के अर्थ से भ्रमित हो गया , मेरे नाम मे भी "राज " होने के कारण !! आगे ख्याल रखूंगा !!
आदरणीय डॉ आसुतोष मिश्र जी पुनः आपका हार्दिक आभार
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी तहे दिल से आभार आपका ग़ज़ल आपको पसंद आई ,और हाँ मैं राज भाई नहीं बहन हूँ
इस ग़ज़ल को पुनः पढने की इच्छा फिर मुझे यहाँ ले आयी ..सादर
अरुण श्रीवास्तव जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती से दिल खुश हुआ तिस पर आपकी प्रतिक्रिया से ग़ज़ल धन्य हुई तहे दिल से आभार
अरे वाह ! क्या उम्दा गज़ल हुई है ! इतनी प्रभावशाली गज़ल आपकी संभवतः पहली बार पढ़ रहा हूँ ! और सच कहूँ कहन की गहराई ने दिल खुश कर दिया ! वाह !
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी ग़ज़ल सराहने और प्रतिक्रिया देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया |
पियूष द्विवेदी जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से हर्षित हूँ तहे दिल से आभारी हूँ |
आदरणीया अन्नापूर्णा जी आपको टिपण्णी से अभिभूत हूँ तहे दिल से शुक्रिया सब इसी मंच से मिला है
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