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ग़ज़ल : रूबरू अब सलाम होता है… "राज"

वजन : 2122 1212 22

वक़्त किसका गुलाम होता है 

कब कहाँ किसके नाम होता है 

 

कल तलक जिससे था गिला तुमको 

आज किस्सा तमाम होता है 

 

खास है  जो  मुआमला अपना 

घर से निकला तो  आम होता है 

 

आज जग में सिया नहीं मिलती 

औ’ किताबों में राम होता है 

 

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है 

 

अश्क कल दर्द के जो पीते थे 

हाथ में आज जाम होता है  

 

रास्ते तो करीब आ जाएं  

दूर कितना  मुकाम होता है  

 

रंजिशे तुम जहां कहीं पालो    

 मौन  उस पर  विराम  होता है 

 

‘राज’ ख्वाबों  में ही नहीं मिलती 

रूबरू अब सलाम होता है 

*******************************

Views: 1064

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 15, 2013 at 8:40pm

आदरणीय नादिर खान जी ग़ज़ल आपको पसंद आई  तहे दिल से शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 15, 2013 at 8:39pm

आदरणीय रविकर भाई जी तहे दिल से शुक्रिया 

Comment by नादिर ख़ान on July 15, 2013 at 1:13pm

बहू खूब, उम्दा गज़ल..........

Comment by रविकर on July 15, 2013 at 12:07pm

वाह क्या बात है दीदी-
शुभकामनायें-
सादर-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 15, 2013 at 11:03am

आदरणीय डॉ .बाली जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति से ही ख़ुशी मिली उस पर आपकी प्रतिक्रिया ने मन खुश कर दिया मेरी लेखनी को संबल मिला हार्दिक आभार 

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 15, 2013 at 10:30am

 क्या बात है राजेश कुमारी जी बहुत बेहतरीन ग़ज़ल पेश की है आपने ॥खासकर ये शेर तो लाजवाब हुआ है...दाद कुबूल करें -----------

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 12, 2013 at 7:58pm

आशीष नैथानी जी ग़ज़ल पसंद आई मेरी कलम को संबल मिला तहे दिल से आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 12, 2013 at 7:54pm

प्रिय शशि जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 12, 2013 at 6:45pm

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है.....

वाह वाह बढ़िया ग़ज़ल !!

Comment by shashi purwar on July 6, 2013 at 11:20pm

waah sakhi sundar gajal bahut sundar hardik badhai aapko

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