ऊब गया मैं ऊब गया
रोज किताबों को पढ़कर !
भाषा की सरल किताबों में
जब व्याकरण की मार पड़ी
छंद विधानों में उलझा
तब जोड़ न पाया कोई लड़ी
समझ न पाया लय तुक को
वहां चली नहीं अपनी तिकड़ी
वहीँ बीजगणित के समीकरण से
छूट गयी अपनी छकड़ी
अंकगणित के जटिल प्रश्न
जब मेरी समझ से दूर रहे
व्यास परिधि के चक्कर में
भूमिति नें बुद्धि को जकड़ी
विज्ञान ज्ञान से दूर रहा
अज्ञान का था पलडा भारी
त्रिकोणमितीय के सूत्रों से
भूल गयी सारी अकडी
तब से मैंने मन ठान लिया
अब नहीं किताबों को पढ़ना
नहीं सुहाता अब मुझको
बस रोज किताबों का पढ़ना
घर में अब जब रहता हूँ तो,
घरवालों को पढता हूँ
घर से जब बाहर जाता हूँ तो,
मुसाफिरों को पढता हूँ
ऑफिस में अधिकारी पढ़कर
सत्य बात कहूं फाईल की
काश! सभी को आ जाये
अनमोल विधा यह पढ़ने की
मन पावन भावों को पढकर
कठिन कार्य सुलझाने की
कंकरी, संकरी लम्बी राहों पर
चल जीवन सफल बनाने की
मौलिक व अप्रकाशित
-सत्यनारायण सिंह
Comment
आदरणीय नीरज जी सादर,
सराहना एवं प्रोत्साहन हेतु आपका बहुत बहुत आभारी हूँ. धन्यवाद
आदरणीय बृजेश जी सादर,
मन में उठे भावों को जस का तस रचना में उतारने का प्रयास भर मैंने किया है. निश्चित ही रचनामें त्रुटियाँ विद्यमान हैं. किन्तु, त्रुटियों को नजरअंदाज कर आपने मेरे सद्प्रयास को शुभ कामनाएँ प्रेषित कर लेखनी को बल दिया है उसके लिए मैं आपका बहुत बहुत आभारी हूँ. धन्यवाद
wah wah bahut hi sundar ise hi to kahte hain
jahan naa pahunche ravi.........
wahan pahunche kavi.............
आदरणीय सुमित नैथानी जी सादर,
सराहना एवं प्रोत्साहन हेतु आपका आभारी हूँ. धन्यवाद
आदरणीय राजेश कुमार जी सादर,
प्रोत्साहन एवं शुभकामनाओं हेतु आपका आभारी हूँ.
इस प्रयास पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं!
घर में अब जब रहता हूँ तो,
घरवालों को पढता हूँ
घर से जब बाहर जाता हूँ तो,
मुसाफिरों को पढता हूँ...bahut sunder likha hai aapne
साथ चलते रहें, हमारी ओर से आपको हार्दिक शुभकामनाएं
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