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आनंद / दिलीप कुमार तिवारी

आनंद जीवन है , शब्द मात्र नहीं
संसार के बियाबान  सुनसान  अधेरी राहों  में,
रोशनी की तरह इसकी तलाश  है
हम तुम यह जग जबसे है आनंद आस -पास है

ये उजड़ी गलियों में भी था ,थकी हुई सडको में भी है , तुम्हारे पगडण्डी में भी है i
बस इसे पाने का विश्वाश खो गया है ,हमारा अपनापन इससे कितनी दूर हो गया है i

कही हम इसे  बदनाम बस्तियों में ढूढ़ते है 
कही हम अपने से बड़ी हस्तियों में ढूढ़ते है
अल्पकालीन किन्तु सर्वव्याप्त है  
जितना मिला क्या पर्याप्त है
इसकी सभी तितलियाँ पंख बिहीन है 
ऊचाई जितनी हो पार  करना है
इसलिए उड़ने में  तल्लीन है 
आओ कठिन को सरल करे
खोजने के सवाल को हल करे 
साधारण है पर सत्य बना दे
तुम्हे आनंद का आकार बता दे
ये माँ बाप के लाचार आँखों में रहता है
रोज अपने बेटे से कहता है
तुम्ही को मैंने "आनंद "मानकर जीवन लुटाया है
पर क्या कहूँ कैसे कहूँ इस पड़ाव में आकर तुम्हे नहीं पाया है
सच में "आनंद "अभी अधूरा है
तुम पालो तुम्हारा जीवन अभी पूरा है
मै  रोज वृद्धाश्रम में तुम्हारे लिए दुआ करता हूँ
जब से तुम गए हो हरपल एक बार मरता हूँ
"आनंद "तुम्हे देख कर मिल जाता था
मन बच्चा है तेरे बच्चो में मिल जाता था
तुमने ज़िन्दगी में मुझे ऐसा क्यों मजबूर किया
"आनंद "के लिए मुझे "आनंद "से क्यों दूर किया
मौलिक /अप्रकाशित 
दिलीप कुमार तिवारी

दिलीप कुमार तिवारी

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 10:30pm

बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ । आदरणीय ।

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on July 15, 2013 at 7:14pm

धन्यवाद  आपने पसंद किया आदरणीय अरुण कुमार जी i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 8:53pm

आनंद को परिभाषित करने का सुंदर प्रयास, सुंदर रचना......

कृपया ध्यान दे...

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