एक कोशिश विरह रस की कविता कहने की आशा है आप सब को पसंद आएगी
फिर से सावन की घटा छाई है
तन्हाई में मुझे तेरी याद आई है
क्यों है दूर मुझसे तू न जानू
क्यों है मजबूर मैं न जानू
है कुछ मेरी भी मज़बूरी
बिन तेरे मैं भी अधूरी
क्या बताऊ दिल का हाल
करता है मुझे ये बेहाल
तुमसे मैं क्या करू सवाल
मेरा क्या तुम बिन हाल
मैं कहु कैसे मेरी प्रियतम
सहा है कितना मैंने सितम
मैं समझती हूँ तेरे दिल का हाल
तेरे बिन मुझे भी नहीं आता करार
यादे तेरी सोने नहीं देती मुझे
आती है आक्सर रातो में मुझे
तुझ बिन न सुर है
न ताल है न लय है
फिर भी मेरा तो
जीना बिलकुल तय है
आज भी सलवटे
बिस्तर की देखता हूँ
तेरे संग जो बिताये पल
उन्हें ख्वाबो में देखता हूँ ....... उन्हें ख्वाबो में देखता हूँ.......उन्हें ख्वाबो में देखता हूँ.......उन्हें ख्वाबो में देखता हूँ।।।।
केतन परमार (अनजान )
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
ji dhanyvaad Dr. Prachi Singh ji aapka
saadar sweekare
विरह भाव पर तुकबंदी का प्रयास ठीक है.. लेकिन एक सुन्दर कविता बनने के लिए इस भाव को और अभिव्यक्ति को लंबा सफर पार करना होगा..
सादर शुभेच्छाएँ
sukriyaa adarniya ji
mujhe kavita kahne ka gyan nahi hai bas jo ek mujhe ehsaas hua usi ko shabdo me utarne ki koshish hai
इस सनातन भाव को तनिक और पगने दें, भाईजी.
आप सुर पर शब्द साधते चले गये हैं परन्तु, कविता के लिहाज़ से इस प्रस्तुति को अभी और सधना होगा..
शुभेच्छाएँ
भावों को सुन्दर शब्द मिले हैं बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति पर !!
वाह काफी सुंदर ख्वाब बुने , इस रचना के लिए बधाई ।
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