घर मकान की आड़ में , बचा नहीं कुछ शेष!
मानव मद में डूबकर,बदल दिया परिवेश !!१
जल थल दूषित हो रहे, मानव फिर क्यों मौन ?
नयन खोल जब सो रहा , इसे जगाये कौन!!३
बूँद बूँद संचय करो, पौधे भी दें रोप!
स्नेह करेगी फिर धरा,झेलेगा न प्रकोप!!४
माता जिसको कह रहे , उस पर ही अन्याय !
मानव प्रतिदिन मारता, अनगिन कोड़े हाय !!५
धरती हरी भरी रहे ,रंग बिरंगे फूल!
कुछ तो ऐसा कार्य कर ,धरती के अनुकूल!! ६
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
१. (तुम) बूँद-बूँद संचय करो
२. (आप) पौधे भी दें रोप
४. (तू) झेलेगा न प्रकोप !!
अब बताइये किसी छंद में यह किस तरह का व्याकरण है ?
आदरणीय सौरभ जी मै आपके कहने का अर्थ समझ गया आगे से ध्यान रखूँगा ,आपका बहुत बहुत आभार //सादर
मेहनत हुई दीख रही है लेकिन अभी और की बहुत गुंजाइश है. अच्छे वाले दोहे पर पहले बधाई ले --
माता जिसको कह रहे , उस पर ही अन्याय !
मानव प्रतिदिन मारता, अनगिन कोड़े हाय !!५
वाह वाह
बूँद बूँद संचय करो, पौधे भी दें रोप!
स्नेह करेगी फिर धरा,झेलेगा न प्रकोप!!४
यह ऐसा दोहा है जिसमें शुतुर्गुर्बा नहीं, पाठक को बिलरमुर्गा का दोष दीखे तो अन्योक्ति न समझियेगा. यह तो अच्छा हुआ कि ऐसे दोषादि ग़ज़ल को ही मुबारक हैं, छंदों को नहीं. :-))))
इस दोहे में तू, तुम और आप का बेजोड़ सम्मिलन है ! इसका आप भी मजा लीजिये --
१. (तुम) बूँद-बूँद संचय करो
२. (आप) पौधे भी दें रोप
४. (तू) झेलेगा न प्रकोप !!
अब बताइये किसी छंद में यह किस तरह का व्याकरण है ?
जय-जय
हार्दिक आभार आदरणीय विजय मिश्र जी //सादर
हार्दिक आभार भाई अरुण शर्मा जी //सादर
हार्दिक आभार भाई वीनस जी //सादर
भाई राम शिरोमणि पाठक साहब दोहों पर आपका प्रयास बहुत ही सुन्दर हुआ है. इस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बूँद बूँद संचय करो, पौधे भी दें रोप!
स्नेह करेगी फिर धरा,झेलेगा न प्रकोप!!४ इस दोहे में प्रवाह बाधित प्रतीत हो रहा है कृपया पुनः देख लें.
गुरुजन कृपया मार्गदर्शन करें.
बूँद बूँद ? क्या इसमें जगण दोष नहीं है ?
क्या ष के साथ श का प्रयोग किया जा सकता है ?
बहुत खूब राम शिरोमणि भाई
hardik aabhar adarneeyaa annpurna ji///saadar
hardik aabhar adarneey bhai brijesh ji////saadar
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