एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर
मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर
इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा
सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा
धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई
मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई
सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े
जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े
कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई
कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई
छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके
मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे दुबके
दौर थमा, धूल जमी, आभा वापस आई
लेकिन अब भी मन है, आँख नहीं खुल पाई
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय लाडलीवाल जी आपका हार्दिक आभार! इसके विधान के लिए मेरे पूर्व के दो प्रयासों पर हुई चर्चा को देखें। कुछ जानकारी प्राप्त हो सकेगी। मैं भी अभी इसे सीख ही रहा हूं। सादर!
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:363376
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:366344
आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश भाई जी बेहद ही गहन भाव लिए सुन्दर रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
रचना भुत सुन्दर लगी | ये पंक्तिया बहुत भा गयी -
दौर थमा, धूल जमी, आभा वापस आई
लेकिन अब भी मन है, आँख नहीं खुल पाई --- हार्दिक बधाई भाई श्री बृजेश जी | ये साँनेट कौनसी विधा है, जानकारी करावे
आदरणीया महिमा जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय आशुतोष जी आपका आभार!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
बहुत ही सुंदर भाव व् प्रस्तुति आदरणीय ब्रिजेश जी बधाई
sunder bhav
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