वज्न- 2122 1212 112
कब से बेकल है ये बहार बहुत
रोज़ो-शब तेरा इंतज़ार बहुत
इश्क कामिल न हो सका किसी का
आये दुन्या में जाँनिसार बहुत
रंग लायेगा आशिकी का जुनूँ
सुर्ख है अब के रसनो-दार बहुत
आदमीयत से है गुरेज़ जिन्हें
अम्न गुज़रे है नागवार बहुत
हक़ के बदले में जान का सौदा
इस ज़माने में है ये कार बहुत
कामिल =पूरा
जाँनिसार =दूसरों के लिये प्राणों की आहूति देने वाला
रसनो-दार =सूली और पाश
गुरेज़= घृणा
कार =पेशा
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राणा प्रताप जी
नमस्ते
आपका धन्यवाद जो आपने मेरी रचना को मान दिया, वाकई तीसरे शेर मे मैने बहुत मेहनत की मगर जो मैं कहना चाहता था वो कह नही सका, हो सकता है कि अल्प ज्ञान के कारण ऐसा हो, बहरहाल, इस ग़ज़ल को २१२२ ११२२ २१२२ ११२ इस बह्र में दोबारा लिखूं तो कैसा रहेगा
// दूसरे और तीसरे शेर का मिसरा-ए-ऊला बेबह्र है//
///इश्क21/ कामिल22/ न हो12/ सका12/ किसी11/ का2///
आपका मार्ग दर्शन चाहूँगा.
सादर
शिज्जू जी
ख़ूबसूरत मतले के बाद सीधे निगाह अंतिम शेर पर ही जाकर ठहरी, दोनों शेर लाजवाब है| मगर जब बाकी के अशआर की बात करता हूँ तो मुझे यह कहने को मज़बूर होना पड़ता है की दूसरे और तीसरे शेर का मिसरा-ए-ऊला बेबह्र है| तीसरे शेर में मुझे ऐसा लगता है कि वह बात सामने नहीं आ रही है जो आप कहना चाह रहे है..कमोबेश दोनों मिसरों में लगभग एक ही बात है|
आदरणीय shijju S. जी बहुत सुन्दर गजल बधाई
अति सुंदर गज़ल के लिए बधाई आपको आदरणीय ।
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