कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
इक संशय फल फूल रहा।।
सरपत के ढेरों झाड़ उगे
तन छू ले कट जाता है
इन बबूल के काँटों से भी
भीतर तक छिल जाता है
सावन की बौछारों में भी
मन उपवन सब सून रहा।।
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
साज संवार व्यर्थ रहा सब
धूल भरा यह रूप रहा।।
चिड़ियों ने भी पंख समेटे
हवा हुई अनजानी सी
नदिया की लहरें व्याकुल हैं
मछली कुछ अकुलानी सी
तूफानों के इस मौसम में
दिया द्वार पर जूझ रहा।।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय लाडलीवाल जी आपका हार्दिक आभार!
बहुत ही सुंदर नवगीत हुआ
कसावट और लय के क्या कहने ....वाह
बहुत बहुत बधाई लीजिये आदरणीय बृजेश जी !!
सुन्दर भाव रचना के लिए हार्दिक बधाई भाई श्री बृजेश नीरज जी
आदरणीय बसंत जी आपका आभार!
आदरणीय अरुन भाई मैंने मान लिया!
बहुत सुन्दर रचना ..बधाई श्री बृजेश जी
आदरणीय बृजेश भाई जी ऐसा कतई नहीं है, यह सत्य है यकीन करें.
आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार!
आपने मेरी टिप्पणी का बदला चुका दिया! :)))))))))))))
वाह आदरणीय बृजेश भाई जी वाह भाव, शिल्प, कथ्य एवं शब्द संयोजन मन मोह गया, आपको जब भी पढ़ता हूँ सोचता हूँ इतना सुन्दर मैं कब लिखूंगा मेरी रचनाओं में ऐसे भाव कब उत्पन्न होंगे. बृजेश भाई जी कुछ अधिक कहने के लिए शब्द नहीं हैं हृदयतल से ढेरों बधाई स्वीकारें.
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