तुम एक दिन तपकर तो देखो
अपने महलों से निकलकर तो देखो
आओ हम वहां चलते हैं
जहां ईंट बनती है
वो मिट्टी जो रात भर गलती है
बार –बार कटती है ,
तब सांचे में ढलती है
फिर भट्टी में तपती है
तब कहीं वो ईंट बनती है
जो आपके महलों की नींव बनती है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह ! सार्थक !!
आदरणीय विजय जी धन्यवाद .......... आपका आभार...............
अति सुन्दर, हेमन्त जी। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
संक्षिप्त और सुन्दर!
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!
प्रिय हेमंत शर्मा जी, ओपन बुक्स ऑन लाइन में आपकी प्रथम रचना का हृदय से स्वागत है. मिट्टी से ईंट बनने की प्रक्रिया किसी तप से कम नहीं है. ईंट के प्रतीक में बहुत ही गम्भीर बात कह गये हैं. बधाई................
मेरी कविता को आशीर्वाद प्रदान करने के लिये आप सभी महानुभावों का सादर आभार ...........नमन .........
ओ बी ओ पर मेरी पहली रचना को मिले आशीर्वाद के लिये मै आप सभी का आभारी हूं ..........नमन .........
वाह ! बहुत सुन्दर सार्थक सन्देश परक लघु रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री हेमंड शर्मा जी
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
अति सुन्दर रचना...!!
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