तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
जब भी सोया अकेली रातों में
डूबता रहा तुम्हारी बातों में
कभी थे हाथ, तेरे हाथों में
हाँ! तुम ही तुम महकती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
जब होती थीं तुम तन्हाई में
विरह की सम्वेदित अंगड़ाई में
भावों की असीम गहराई में
साध चुप्पी, तुम बिलखती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
मुझे याद है वे सारे पल
वह परसों, आज और कल
जब टूटा था तेरा सम्बल
तुम भरे गले से हिलकती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
तेरे मतवाले नशीले नयन
घायल करते थे मेरा मन
बाँहों में तेरी, जो अपनापन
जुल्फें रोज ही उलझती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
जब प्रेम पर पहरेदारी हुई
दिल में चुभी ज्यों गर्म सुई
धीमी जलती धडकन की रुई
तुम भी तो उधर सुलगती थीं
तुम्हारी चूड़ियां खनकती थीं
-जितेन्द्र 'गीत'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अरुण अनंत जी
आपकी विस्तृत व् उत्साह बर्धक प्रतिक्रिया से, मुझे बहुत मनोबल मिला, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
वाह आदरणीय जीतेंद्र भाई मान गए आपको क्या सुन्दर मनोहारी दृश बांधा है आपने विरह की वेदना में ह्रदय पर क्या क्या गुजरती है उसका सुन्दरता से वर्णन किया है आपने मजा आ गया भाई. यह ओ बी ओ का जादू है हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी,
स्नेह बनाये रखिये
सादर!
आदरणीया वसुंधरा जी,
आपकी रचना पर प्रतिक्रिया से , लेखनकर्म को उर्जा मिली, आभार
सादर!
आदरणीय श्याम नारायण जी
बहुत बहुत आभार आपका
सादर!
आदरणीय अभिनव अरुण जी
आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया , लेखनी की सार्थकता का प्रमाण है
सादर!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी
रचना में भावों की सुन्दरता सराहने हेतु, आपका बहुत बहुत आभार
सादर!
आदरणीया शुभ्रा जी
आपने रचना को सराहा, बहुत बहुत आभार आपका
सादर!
आदरणीय शिज्जू जी,
आपको रचना पसंद आयी, लेखन कर्म सार्थक हुआ, बहुत बहुत आभार
सादर
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