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ग़ज़ल - मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ

दिलों को जोड़कर रखता रहा हूँ -
मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ -

मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी
किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -

हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में
मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-

ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख
तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ -

नहीं मुमकिन है मेरी वापसी अब
फ़क़त शतरंज का प्यादा रहा हूँ -

तुम्हारे नाम का इक फूल हर साल
क़िताबे दिल में, मैं रखता रहा हूँ -

किनारे इक नदी के बैठकर मैं
'तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ' -

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by विवेक मिश्र on August 14, 2013 at 6:56am
तहे दिल से आभारी हूँ अरुण अभिनव जी। लेकिन यह 'श्री विवेक' वाली बात पची नहीं। एक अनुज की भांति केवल नाम से सम्बोधित करना, मुझे ज्यादा रुचिकर लगेगा। धन्यवाद।:-)
Comment by Abhinav Arun on August 14, 2013 at 6:21am

हर शेर उम्दा बेहतरीन ग़ज़ल श्री विवेक जी !! मतले से लेकर आखिरी शेर तक हर शेर के लिए आफरीन अफरीन ..सौ सौ बधाईयां !!

Comment by विवेक मिश्र on August 14, 2013 at 12:49am
शुक्रिया गिरिराज भण्डारी जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 13, 2013 at 8:03pm

बहुत अच्छी गज़ल कही भाई !!

Comment by विवेक मिश्र on August 13, 2013 at 5:12pm
हार्दिक आभारी हूँ शुभ्रा शर्मा जी एवं विजय मिश्र जी।
Comment by विजय मिश्र on August 13, 2013 at 4:54pm
सुंदर गजल ,हार्दिक बधाई विवेकजी
Comment by shubhra sharma on August 13, 2013 at 4:52pm

आदरणीय विवेक मिश्र जी जिंदगी जीने के लिए
हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में
मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-

ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख
तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ - आपकी ये सीख गजल की जान लगी , बहुत बहुत बधाई

 

Comment by विवेक मिश्र on August 13, 2013 at 4:49pm
डॉ.आशुतोष मिश्र जी - मेरा एक शे'र भी आप तक पहुँच सका। दिल से आभारी हूँ।
श्याम नारायण वर्मा जी - जी बहुत शुक्रिया।
Comment by Shyam Narain Verma on August 13, 2013 at 4:17pm

बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 13, 2013 at 4:09pm

शानदार ग़ज़ल के इस शेर ने दिल को छू लिया ..मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी
किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -,,बेहतरीन ..सदर बधाई के साथ 

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