दिलों को जोड़कर रखता रहा हूँ -
मैं कितनों के लिए पुल सा रहा हूँ -
मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी
किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -
हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में
मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-
ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख
तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ -
नहीं मुमकिन है मेरी वापसी अब
फ़क़त शतरंज का प्यादा रहा हूँ -
तुम्हारे नाम का इक फूल हर साल
क़िताबे दिल में, मैं रखता रहा हूँ -
किनारे इक नदी के बैठकर मैं
'तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ' -
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
हर शेर उम्दा बेहतरीन ग़ज़ल श्री विवेक जी !! मतले से लेकर आखिरी शेर तक हर शेर के लिए आफरीन अफरीन ..सौ सौ बधाईयां !!
बहुत अच्छी गज़ल कही भाई !!
आदरणीय विवेक मिश्र जी जिंदगी जीने के लिए
हजारों मस'अले हैं ज़िन्दगी में
मैं इक इक कर उन्हें सुलझा रहा हूँ-
ग़मे दौरां में ख़ुशियाँ ढूँढ़ना सीख
तुझे कबसे ऐ दिल! समझा रहा हूँ - आपकी ये सीख गजल की जान लगी , बहुत बहुत बधाई
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको
शानदार ग़ज़ल के इस शेर ने दिल को छू लिया ..मैं लम्हा हूँ, मगर सदियों पुरानी
किसी तारीख़ का हिस्सा रहा हूँ -,,बेहतरीन ..सदर बधाई के साथ
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