वो अपनेपन का सोता खोल दिल की हर गिरह निकले ।
कगारी फाँद ओंठों की सुरीला गीत बह निकले ।
लरजकर चूम ले माथा, हुमक कर बाँह में भर ले
वो बिछड़ी रात भर की धूप बौरी जब सुबह निकले ।
फकत दो बूँद ने भीतर तलक सारा भिगो डाला
हमारे दिल भी ये कच्चे मकानों की तरह निकले ।
इन्हें पोंछो तो पहले कैफियत पीछे तलब करना
हर आँसू बेशकीमत है वो चाहे जिस वजह निकले
इस अपनी आदमी की देह से इतनी कमाई कर
कि तेरे बाद भी तेरे लिये दिल में जगह निकले ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
//लरजकर चूम ले माथा, हुमक कर बाँह में भर ले
वो बिछड़ी रात भर की धूप बौरी जब सुबह निकले ।//
वाह वाह !! जवाब नहीं इस ख्याल का आ० सुलभ अग्निहोत्री जी। बहुत खूबसूरती से शब्द बक्शे है इस ख्याल को, दिल से बधाई पेश है।
लरजकर चूम ले माथा, हुमक कर बाँह में भर ले
वो बिछड़ी रात भर की धूप बौरी जब सुबह निकले । क्या कहने वाह वाह वाह !!!
एक मतला और चार शेर.. और सबके सब मिजाज़ में ! अपने अंदाज़ में !
आदरणीय सुलभभाईजी, आपकी ग़ज़ल में दम तो है ही दिशा भी है. प्रस्तुति में जिस लिहाज से आपने माटी के गंध को इन्फ्यूज किया है, वह विभोर कर गया. आपसे मंच को और आगे साहित्य को बहुत अपेक्षाएँ हैं, आदरणीय.
मैं आपकी अन्य प्रस्तुतियों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद ! राम शिरोमणि पाठक जी !
dhanyavad Ketan Parmar Ji
फकत दो बूँद ने भीतर तलक सारा भिगो डाला
हमारे दिल भी ये कच्चे मकानों की तरह निकले ।वाह वाह
इस अपनी आदमी की देह से इतनी कमाई कर
कि तेरे बाद भी तेरे लिये दिल में जगह निकले ।।जोरदार
आदरणीया बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल //हार्दिक बधाई आपको
bahut khoob
नीरज मिश्रा जी ! मन-वाणी दोनों अभिभूत हैं आपकी इस स्नेहिल-संगीतमय प्रतिक्रिया से। समझ नहीं आ रहा किन शब्दों में आभार व्यक्त करूँ ? कृतश्र हूँ ! बस, ऐसा ही स्नेह बनाये रखिये।
बहुत-बहुत धन्यवाद ! विजय निकोर जी !
बहुत-बहुत धन्यवाद ! गीतिका वेदिका जी !
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